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________________ का FFFF भगवान तीनों लोकों के तिलक स्वरूप थे तथापि इन्द्राणी ने उनके ललाट पर तिलक किया एवं उनके मस्तक पर कल्पवृक्ष के पुष्यों की माला से सुशोभित मुकुट रख दिया । यद्यपि भगवान तीनों लोकों के चूड़ामणि थे तथापि इन्द्राणी ने उन्हें चूड़ामणि पहनाया एवं प्रसन्न होकर उनके नेत्रों में कज्जल लगाया। भगवान के कर्णों में जन्मजात छिद्र थे, इसलिए इन्द्राणी ने उनमें भक्तिपूर्वक सूर्य-चन्द्र के समतुल्य कांतिवान मनोहर कुण्डल पहिनाए । उनके हृदय प्रदेश में मणियों का हार पहिना दिया, कण्ठ में कण्ठी एवं माला पहनाई एवं इस प्रकार जन्म से ही अति रूपवान भगवान की शोभा सर्वोत्तम बनाई। उनके दोनों हस्त केयूर, कटक, अंगद एवं दिव्य अंगूठी से सुशोभित थे एवं वे कल्पवृक्ष के समकक्ष प्रतीत होते थे। इन्द्राणी ने प्रसन्न होकर भगवान की कटि में किंकिणियों के संग-संग बहुमूल्य मणियों से सुशोभित करधनी पहिनाई । पग (पैरों) में मणियों के नुपूर शोभायमान थे, जो झंकृत हो रहे थे एवं ऐसे प्रतीत होते पड़ते थे, मानो सरस्वती ही उन अनुपम पगों (पैरों) की सेवा कर रही हो । वे भगवान (तीर्थंकर देव) तीनों लोकों के श्रृंगारभूत थे, अत्यन्त रूपवान थे एवं दिव्य शरीर को धारण करनेवाले थे । यद्यपि उनकी काया का श्रृंगार करने की कोई आवश्यकता नहीं थी तथापि इन्द्राणी ने अपने कर्त्तव्य पालन एवं पुण्य सम्पादन करने हेतु उस समय भगवान का श्रृंगार किया ॥६०॥ सिंहासन पर विराजमान वे भगवान शैशवावस्था में ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो पुन्जीभूत यशोराशि ही एक स्थान पर स्थिर गई हो अथवा लक्ष्मी का निर्मल पुन्ज हो अथवा शुभ परमाणुओं का समूह हो या तेज का ही स्तोत्र हो अथवा सम्पूर्ण कलाओं से सुशोभित चन्द्रमा हो या सौभाग्य का विपुल आगार हो वा सुन्दरता का अलौकिक प्रतिमान हो अथवा गुणों का अगाध सागर हो अथवा ऋद्धियों से सुशोभित तपोनिधि निग्रंथ मुनिराज ही हों । सुवर्ण की कांति को धारण करनेवाली भगवान की काया स्वभाव से ही सुन्दर थी तथा अनेक प्रकार के दिव्य आभूषणों से विभूषित की गयी थी एवं उस पर इन्द्राणी ने तिलक आदि से चर्चित कर उसका मनोहर |२१२ श्रृंगार किया था, इसलिए उस उपमा रहित शोभा का वर्णन भला कौन विद्वान कर सकता है ? इस प्रकार परम आनन्ददायक भावी तीर्थंकर भगवान का श्रृंगार कर इन्द्राणी उनकी रूपराशि को निहार कर स्वयं ही अत्यन्त आश्चर्य प्रगट करने लगी । इन्द्र ने भी आश्चर्य एवं कौतूहल के संग अपने दोनों नेत्रों से भगवान के रूप की उस समय की अद्भुत शोभा देखी, फिर भी वह सन्तुष्ट नहीं हुआ । पूर्ण सन्तुष्टि प्राप्त करने 444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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