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४. णमोकार मंत्रफल गीत, ५. पार्श्वनाथाष्टक, ६. सोलहकारणदास, ७. सारसी 'खामणिदास ८. शान्तिनाथ फागु ।
यशोधरचरित्र का महाकाव्यत्व
ब्रह्मजिनदास ने अपने जम्बूस्वामीचरित्र में भ० सकलकीति को महाकवि शुद्धचरित्रधारी, निर्ग्रन्थ तथा प्रतापी राजा बताया है। उनका प्रस्तुत 'यशोधरचरित्र' उनके महाकवि होने को प्रमाणित करता है । चौदहवीं शदी में आचार्य विश्वनाथ ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा निश्चित किए गए आधारों पर साहित्यदर्पण में महाकाव्य का इस प्रकार से लक्षण दिया है
जो संर्गबद्ध हो वह महाकाव्य है । उस काव्य का नायक देवता होना चाहिए अथवा अच्छे वंश का क्षत्रिय, जिसमें धीरोदत्तगुण आदि हों अथवा एक ही वंश में उत्पन्न अनेक राजा भी उस काव्य के नायक हो सकते हैं। ऐसे महाकाव्य में शृंगार, वीर, और शान्त रस में से एक रस प्रधान होता है तथा अन्य रस गौण रूप से वणित होते हैं। उसमें नाटक की समस्त संधियां होती हैं । महाकाव्य की कथा किसी ऐसे महान् व्यक्ति पर आश्रित होती है जो लोकप्रसिद्ध अथवा इतिहासप्रसिद्ध व्यक्ति हो, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से एक उसका फल होता है। प्रारम्भ में नमस्कारादि, आशीर्वचन या वस्तु का निर्देश होता है। महाकाव्य में कहीं-कहीं खलों की निन्दा और सज्जनों के गुणों की प्रशंसा रहती है । एक ही वृत्त की प्रधानता रहती है परन्तु सर्ग के अन्त में वृत्त भिन्न होता है। सर्ग न बहुत छोटे और न बहुत लम्बे, आठ से अधिक होते हैं । कभी-कभी कोई सर्ग
अनेक छन्दों वाला भी होता है। सर्ग के अन्त में आगामी कथा का संकेत · मिलना चाहिए। उसमें संध्या, सूर्य, चन्द्र, रजनी, प्रदोष, अन्धकार, दिन, प्रातः काल, मध्याह्न, मृगया, शैल, ऋतु, वन, सागर, संभोग, विप्रलम्भ, मुनि, स्वर्ग यज्ञ, युद्ध, यात्रा, विद्या, मन्त्र, पुत्र और अभ्युदय आदि का सांगोपांग वर्णन होता है । इस प्रकार के प्रबंधकाव्य का नाम कवि, चरित्र अथवा चरित्र नायक के नाम पर आधारित होता है। कही-कहीं इससे भिन्न भी हो सकता है। सर्गों का नाम कथा पर आधारित होना चाहिए।
इस स्वरूप के आधार पर यशोधरचरित्र को महाकाव्य कहने में कोई
... १. सतो भवन्तस्य जगत्प्रसिद्ध : पट्टे मनोज्ञे सकलादिकीतिः ।
महाकविः शुद्धिचरित्रधारी निर्ग्रन्थराजा जगति प्रतापी ॥