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अहिंसा लक्षण से युक्त बेद और धर्म से मनुष्यों को शान्ति, वृद्धि, वैभवशाली राज्य, पुष्टि तथा सन्तोष मिलता है किन्तु हिंसात्मक वेद और धर्म में पूर्वोक्त एक भी गुण नहीं होता है । जिस यज्ञ-पूजन से प्राणियों का घात-वध होता है, विवेकशील विद्वानों ने उसे सच्चा यज्ञ नहीं कहा, क्योंकि जीवों की हिंसा से इस लोक और परलोक में भयंकर दु:ख पैदा होता है। जिन-भगवान् की पूजा निमित्तक जो यज्ञ हैं, विद्वानों ने उस यज्ञ को सर्व विघ्नों का नाशक, स्वर्ग के सुखों का देने वाला और दयापूर्ण कहा है। श्रावकों को सदा इन्द्र चक्रवर्ती नारायणादिक की विभूति देने वाले उसी यज्ञ को करना चाहिए। जिनपूजा सम्बन्धी यह यज्ञ स्वर्ग और मोक्ष का देने वाला है किन्तु जीवों की हिंसा वाला यज्ञ स्वर्ग और मुक्ति के सुखों को नहीं देता है । मूों ने सदा जीवहिंसा में आसक्त तथा क्रूर परिणाम वालों को देव कहा है, वह वास्तव में देव नहीं हैं किन्तु नरकादि दुर्गति में जाने वाले हैं । वे दुष्ट देव संसार में सज्जन और दुर्जनों का अनुग्रह और निग्रह करने में भी समर्थ नहीं है, गुणों से रहित हैं, राग से दूषित हैं। हाथों में आयुध धारण करते हैं , खल-दुष्ट हैं और विवेकशील पुरुषों के द्वारा निंदनीय हैं। जो आयुधों से रहित हैं, वस्त्र और आभूषणों से रहित हैं, अठारह दोषों से. हीन हैं, मुक्ति के देने वाले हैं, देवों के भी देव हैं, विद्वानों से सम्मत हैं ऐसे जिनेन्द्रदेव की पूजा करनी चाहिए । यदि यज्ञ में हत-मारित जीव स्वर्ग को जाते हैं तो यज्ञकर्ता पुरुष अपने परिवार के जनों की हिंसा से यज्ञ क्यों नहीं करता है ? (६४-७१) . इस संसार में दैवयोग से कभी काले सांप के मुख से अमृत पैदा हो जाय, भले ही कभी गाय के सींगों से दूध पैदा हो जाय, लेकिन प्राणियों की हिंसा से धर्म कभी भी नहीं होगा। जैसे अग्नि कभी भी शीतल. नहीं होती है। सुमेरु पर्वत कभी चलायमान नहीं होता है और अभव्य-जीव भी कभी भव्य नहीं होता है, उसी प्रकार हिंसा कभी भी धर्म नहीं हो सकती है। जैसे आकाश से अन्य कोई वस्तु महान् नहीं है, अमृत से अन्य कोई मधुर वस्तु नहीं है और जिनेन्द्र को छोड़कर अन्य कोई दूसरा यथार्थ देव नहीं है, उसी प्रकार जीवों की रक्षा को छोड़कर अन्य दूसरा यथार्थ धर्म नहीं है । इसलिए हे माता, जीवों की दया वाले अपने कुल धर्म को छोड़ कर मैं कभी भी जीवहिंसा नहीं करूँगा, चाहे मेरे प्राण भले ही चले जायें। क्योंकि जो शठ-मूर्ख जिन-भगवान् से प्रतिपादित, जीवदया से युक्त अपने पितृ-धर्म को छोड़कर, जीव-हिंसक धर्म को करते हैं, वे मूर्ख पापी इस लोक में कुल का नाश पाते हैं, लक्ष्मी का नाश देखते हैं, वध-बन्धन के दुःख पाते हैं तथा मृत्यु के दुःखों को भोगते हैं और परलोक में पापकर्म के उदय से घोर नरक में जन्म लेकर अनेक असंख्य दुःखों को भोगते हैं। (७२-७७)