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की कलाई को अपने हाथ से पकड़कर, तीव्र विषयवाधा से व्याकुल मैंने बिना कष्ट के अन्त:पुर में प्रवेश किया । (११-१८) ___अनेक प्रकार के मणियों से खचित मनोहर कोतिशाली सोपान-पंक्ति पर चढ़कर, सात चौकों को पारकर निर्मल और धवल स्फटिक मणियों से रचित, अनेक दीपों से प्रकाशमान लुभावने उस आठवें खण्ड में मैंने पदार्पण किया। कुब्ज और वामन प्रभृति सेवकों से मेरे आगमन को जानकर मेरा जयकार बोलती हुई महादेवी अपने शयनागार से बाहर आयी । आनन्द से अपने हाथों में मनोरम प्राणवल्लभा को लेकर धवल और अत्यन्त कोमल शैय्या पर मैं चला गया। वहां अमृतमती देवी के साथ विविध प्रकार से काम-भोगों को भोगकर तथा कामज्वर को शान्त कर मैं मानसिक शान्ति को प्राप्त हुआ। तब मैंने विषय-सुख के अन्त में उस मृगनयनी प्राणवल्लभा को अपने भुजपंजर के बीच में कर निद्रा लेने का विचार किया। अमतदेवी के रूपलावण्य का विचार करते हुए उस समय मुझे जरा भी निद्रा नहीं आयी। यद्यपि कामभोग से मुझे काफी थकान आ चुकी थी और मेरी मानसिक तृप्ति भी हो चुकी थी । (१६-२५) . अमृतदेवी मुझे सोया हुआ जानकर जैसे सर्पिणी कंचुली से बाहर निकलती है वैसे ही मेरे भुजपंजर से बाहर निकल पड़ी । सुन्दर अलंकार और वस्त्रों को पहिनकर लज्जा विरहित होकर अमृतमती देवी दोनों किवाड़ों को खोलकर शयनागर से बाहर निकलकर चली गयी । तब हे राजन् ! विस्मय के साथ मैंने विचार किया-अर्ध रात्रि के समय इसने कहाँ जाने का उपक्रम शुरू किया है ? क्रोध से उन्मत्त हो हाथ में तलवार लेकर और काला कपड़ा पहिनकर मैं रानी के पीछे-पीछे चल पड़ा। फिर वहीं राजमहल के दरवाजे पर क्रोध की दशा में खड़ा हो गया। वहाँ मैंने उस पापिन को महावत के चरणों के पास बैठी देखा । वह महावत लँगड़ा था, कुष्ठ रोग से पीड़ित था। भयानक केशों से युक्त था, महापापी था। उसके संस्थान और हड्डियों की रचना अत्यन्त बेडौल थी। मुखाकृति अत्यन्त विकराल थी और वह भयंकर कुष्ठ रोग से जर्जरित था । वह अनेक दोषों का मानो भण्डार था और कंकाल रूप आकृति को धारण करने वाला था । अमतमती देवी ने धीरे-धीरे उस पापी को उसके पैर दबाकर उठाया तब उसने क्रोध में आकर केशपाश पकड़कर रानी को खींचा । इस अजीब घटना को देख मेरा मस्तक ठनकने लगा-कहाँ तो यह महारानी और कहाँ यह नीच सेवक ! ऐसा विचार करते हुए मुझे बड़ा ही विस्मयहुआ। तब क्रोध से पागल मुझ यशोधर ने उन दोनों का वध करने के लिए म्यान से तलवार निकाल ली। उस तीक्ष्ण धार वाली तलवार को देखकर मैंने अपने मन में विचार किया कि जिस तलवार ने समरांगण में अरिचक्र का रक्तपात कर अपनी प्रतिष्ठा कायम की इस दीन-हीन अनाथ के वध करने के लिए यह म्यान से कैसे निकाली !