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परिशिष्ट
सचित्र प्रतियां यशोधरचरित की कुछ सचित्र प्रतियां भी उपलब्ध होती हैं। इसके लिए राजस्थान अग्रणी रहा है। लगता है, यहाँ चित्रकारों के लिए यशोधर का चरित्र बहुत भाया है। फलतः उन्होंने प्रतियों को सचित्र बनाकर उनमें समरसता का रस घोल दिया। रइधू, सोमकीति, सकलकीति आदि आचार्यों के यशोधरचरित के विभिन्नकथानक पहलुओं को कुशल चित्रकारों ने अपनी तूलिका में समेट लिया है। जयपुर, नागौर, व्यावर आदि ग्रन्थभण्डारों में ऐसी अनेक प्रतियाँ प्राप्त होती हैं।
प्रस्तुत यशोधरचरित की सचित्र पाण्डुलिपि लूणकरण जैन मन्दिर जयपुर में सुरक्षित है । श्री पं० मिलापचन्द शास्त्री के सान्निध्य में इस मन्दिर का ग्रन्थागार सुव्यवस्थित है । नष्ट होने से बचाने के लिए उन्होंने इसे काँच में जड़ा दिया है । इस पाण्डुलिपि की पत्रसंख्या ४४ है जिनके किनारे अलंकृत रूप से सजे हुए हैं । इनमें साधारणत: हरा, लाल, सफेद और गहरे पीले रंग का प्रयोग हुआ है । सवाई माधोपुर और पार्श्वनाथ मन्दिर जयपुर की प्रतियाँ भी सचित्र हैं पर उनके पत्र अलंकृत नहीं हैं । इन सभी प्रतियों में यशोधर के भवान्तरों से सम्बद्ध चित्रों के साथ ही उपसर्ग, उपदेश, भक्ति और प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच पशु-पक्षियों का सुन्दर चित्रांकन हुआ है। . जैन. चित्रकला की ओर कदाचित् सर्वप्रथम विशेष ध्यान आकर्षित किया १९१४ में आनन्द कुमार स्वामी ने। बाद में इस क्षेत्र में अजितघोष, गांगुलि, मोतीचन्द, मुनि पुण्यविजय आदि विद्वानों ने कार्य किया । यह चित्रकला, पालकाल में भित्तिचित्रों से ताड़यत्रों पर आयी और फिर उसे कागद पर उकेरा जाने लगा। डॉ. मोतीचन्द ने जैन चित्रकला को तीन कालों में विभाजित किया है--. १. ताड़पत्र काल-११००-१४०० ई० तक जिसमें गुजरात और कर्नाटक में तीर्थकर, देवी-देवताओं और महापुरुषों के वैराग्योत्सादक चित्र निबद्ध हैं । २. कागद काल१४००-१६०० ई० तक जिनमें लाल रंग का अधिक प्रयोग हुआ और प्राकृतिक दृश्यों के साथ-साथ किन्नरियों के चित्र खूब बनाये गये । गुजरात और राजस्थान में इस शैली को महापुराण और कल्पसूत्र जैसे ग्रन्थों के चित्रों में देखा जा सकता है। ३. उत्तर काल-१७ वीं शताब्दी के बाद इस काल में बुन्देलखण्ड, मालवा और राजस्थान विशेष केन्द्र रहें हैं जहाँ के चित्रों में मुगल शैली का प्रभाव स्ष्टतः दिखाई देता है।