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देवतामूर्ति-प्रकरणम्
प्रतिमा बनने योग्य शाखा हो, वह दोषों से रहित और उत्तम भूमि में उत्पन्न होनी चाहिये ।
14. पद्य-27.
विवेकविलास में कहा है कि“अतीताब्दशतं यत्स्याद् यच्च स्थापितमुत्तमैः ।
तद्व्यंगमपि पूज्यं स्याद् बिम्बं तन्निष्फलं न हि ॥ "
- उत्तम पुरुषों ने सौ वर्ष पहले जो मूर्ति स्थापित की हो, वह यदि बेडोल हो, तो भी पूजनीय है, उसका पूजन फल निष्फल नहीं जाता ।
15. पद्य - 28.
ठ. फेरुकृत वास्तुसार अ. २ श्लोक ४१ में लिखा है कि“ धाउलेवाइबिंबं विअलंगं पुण वि कीरए सज्जं ।
रयणसेलमयं न पुणो सज्जं च कई आवि || '
धातु और लेप की प्रतिमा यदि विकलाङ्ग हो जाय, तो उसी को दूसरी बार बना सकते हैं । किन्तु काष्ठ, रत्न और पाषाण की प्रतिमा यदि खण्डित हो जाय तो उसी को कभी भी दूसरी बार नहीं बनाना चाहिये ॥ आचारदिनकर में कहा है कि
“ धातुलेप्यमयं सर्वं व्यंगं संस्कारमर्हति । काष्ठ-पाषाण-निष्पन्नं संस्कारार्हं पुनर्नहिं ॥ प्रतिष्ठिते पुनर्बिम्बे संस्कारः स्यान्न कर्हिचित् । संस्कारे न कृते कार्या प्रतिष्ठा तादृशी पुनः || संस्कृते तुलिते चैव दुष्टस्पृष्टे परीक्षिते ।
हृते बिम्बे च लिंगे च प्रतिष्ठा पुनरेव हि ॥”
धातु और ईंट, चूना, मिट्टी आदि की लेपमय प्रतिमा यदि विकलाङ्ग हो जाय तो वह फिर संस्कार करने योग्य है । परन्तु लकड़ी और पत्थर की प्रतिमा फिर संस्कार करने योग्य नहीं है । प्रतिष्ठित मूर्ति का दूसरी बार कभी संस्कार नहीं होता, यदि संस्कार करना पड़े तो दूसरी बार पूर्ववत् ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये। कहा है कि प्रतिष्ठित मूर्ति का संस्कार करना पड़े, तोलना पड़े, दुष्ट मनुष्य का स्पर्श हो जाय, या चोरी जाय तो उसी