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________________ देवतामृर्ति-प्रकरणम् "अङ्गुष्ठपर्वादारभ्य वितस्तिर्यावदेव तु । गृहेषु प्रतिमा कार्या नाधिका शस्यते बुधैः ॥” अङ्गुठे के एक पर्व से लेकर एक वितस्ति ( बिलांद) तक के मान की प्रतिमा घर में पूजनीय है, इससे अधिक नाप की घर में प्रशंसनीय नहीं है । 11. पद्य - 21. मत्स्यपुराण में कहा है कि " “ आषोडशा तु प्रासादे कर्त्तव्या नाधिका ततः । अ. २५ श्लो. २३ ॥” 41 दो बिलांद से लेकर सोलह बिलांद तक के मान की प्रतिमा प्रासाद में पूजनीय है, इससे अधिक मान की प्रतिमा प्रासाद से बाहर पूजनीय है I 12. पद्य-23. ठ. फेरुकृत वास्तुसार प्रकरण प्र. ३ श्लोक २० में कहा है कि“पासायेस्स पमाणं गणिज्ज सह भित्तिकुंभगथराओ । तस्स य दस भागाओ दो-दो भित्ती हि रसगब्भे ॥ " प्रासाद का मान दीवार और कुँमा के घर के सहित माना जाता है । उसका दश भाग करना, उनमे से दो-दो भाग की दीवार और छ: भाग का गर्भगृह जानना । बृहत्संहिता अ. ४४ श्लोक १२ में कहा है कि “विस्तारार्द्धं भवेद् गर्भो भित्तयो न्यासतत्समः ॥ " प्रासाद के विस्तार का आधा गर्भगृह और आधे भाग के मान की दोनों दीवार समझना । - वसुनंदि प्रतिष्ठासार में लिखा है कि “क्षेत्रमष्टपदं कृत्वा तंत्र गर्भं चतुष्पदम् । द्विपदो भित्ति विस्तारः तत्समो जलपट्टकः || ” प्रासाद मान का आठ भाग करना, उनमे चार भाग का गर्भगृह करना । दो भाग की दीवार और दो भाग का जलपद (कुत्रादिधरां) घरों का निर्गम करना ।
SR No.002234
Book TitleDevta Murti Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Bhagvandas Jain, Rima Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1999
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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