________________
40
देवतामूर्ति-प्रकरणम्
ठक्कुर फेरु कृत वास्तुसार प्रकरण में लिखा है कि“पासायतुरियभागप्पमाणबिंबं स उत्तमं भणियं ”
अर्थात् प्रासाद के मान से चौथे भाग की प्रतिमा बनाना उत्तम कहा है ।
विवेकविलास में कहा है कि
“ प्रासाद - तुर्य भागस्य समाना प्रतिमा मता ।
उत्तमाय कृते सा तु कार्यैकोनाधिकांगुला ॥. अथवा स्वदशांशेन हीनस्याप्यधिकस्य वा ।
कार्या प्रासादपादस्य शिल्पिभिः प्रतिमा समा ॥ "
प्रासाद के विस्तार के चौथे भाग के मान की प्रतिमा बनाना, यह उत्तम है, परन्तु एक अङ्गुल न्यून या अधिक रखना चाहिये । अथवा प्रासाद के चौथे भाग का दशवाँ भाग मूर्ति के मान में कम या अधिक करके उस मान की प्रतिमा शिल्पकार से बनवाना चाहिये ।
9. पद्य - 16.
बृहत्संहिता में लिखा है कि“देवागारद्वारस्याष्टांशोनस्य यस्तृतीयोंऽशः ।
तत्पिण्डिकाप्रमाणं प्रतिमा तद्द्विगुणपरिमाणा ॥ "
मंदिर के द्वार की ऊँचाई का आठ भाग करके ऊपर का एक भाग छोड़ देना । बाकी सात भाग रहे, उनका तीन भाग करके उसके एक भाग की पीठिका और दो भाग की प्रतिमा बनाना चाहिये ।
10. पद्य-20.
ठ. फेरुकृत वास्तुसार के बिम्ब प्रकरण में लिखा है कि“इक्कांगुलाइ पडिमा इक्कारस जाव गेहि पूइज्जा । उड्डुं पासाइ पुणो इअ भणियं पुव्वसूरीहिं ॥ "
घर में एक अङ्गुल से ग्यारह अङ्गुल तक के मान की प्रतिमा पूजनीय है और ग्यारह अङ्गुल से अधिक मान की प्रतिमा प्रासाद (मंदिर) में रखकर पूजना चाहिये, ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है ।
1
मत्स्यपुराण के अ. २५८ श्लोक २२ में लिखा है कि