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________________ - ' देवतामूर्ति-प्रकरणम् शिल्परत्न अ. १४ में लिखा है कि"तुल्यांशः क्षीरपिष्टैस्तु विषकासीसगैरिकैः । दृषदालिप्य नि:शेष-मेकरात्रोषितं ततः॥ प्रक्षाल्य गर्भात् दोषांश्च मण्डलैस्तत्र रक्षयेत् ।” वच्छनाग, हीराकसीस और गैर ये तीनों समान भाग लेकर दूध से पीसे, उसका पाषाण के ऊपर लेप करके एक रात्रि रहने दे, पीछे उसको. धोने. से पत्थर के भीतर के दाग और दोष मालूम हो जायगा। आचारदिनकर में कहा है कि"अशुभस्थाननिष्पन्नं सत्रासं मशकान्वितम्। . सशिरं चैव पाषाणं बिम्बार्थं न समानयेत् ॥” अपवित्र स्थान में उत्पन्न होने वाले, चीरा, मसा या नस आदि दोष वाले ऐसे पाषाण प्रतिमा बनाने के लिये नहीं लाने चाहिये। 6. पद्य-10. शिल्परत्न में लिखा है कि“नन्द्यावर्त्तवसुन्धराधरहय—श्रीवत्सकूर्मोपमाः, शङ्खस्वस्तिकहस्तिगोवृषनिभाः शक्रेन्दुसूर्योपमाः । छत्रस्रग्ध्वजलिङ्गतोरणमृग-प्रासादपद्मोपमा, , वज्राभा गरुडोपमाश्च शुभदा रेखा: कपर्दोपमाः ॥" पाषाण या लकडी में नंद्यावर्त, शेषनाग, घोड़ा, श्रीवत्स, कछुआ, शङ्ख, स्वस्तिक, हाथी, गौ, नंदी, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, छत्र, माला ध्वजा, शिवलिङ्ग, तोरण, हरिण, मंदिर, कमल, वज्र, गरुड़ या शिव जटा के सदृश रेखा होवे तो शुभ दायक हैं। वसुनंदीकृत प्रतिष्ठासार में लिखा है कि"गच्छत्येवं प्रयत्नेन सम्यगन्वेषयेच्छिलाम् । प्रसिद्ध-पुण्यदेशेषु नदीनगवनेषु च ॥" अच्छे शुभ यात्रा मुहूर्त के समय प्रसिद्ध पवित्र तीर्थ स्थानों में, नदी, पर्वत या उपवनों में जाकर शिला की अच्छी तरह शोध करें। . "श्वेता रक्ताऽसिता पीता पारावत-समप्रभा।
SR No.002234
Book TitleDevta Murti Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Bhagvandas Jain, Rima Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1999
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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