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देवतामूर्ति-प्रकरणम् "स्निग्धा गम्भीर-निर्घोषा सुगन्धा शीतला मृदुः। नविलावयवा तेज:सहिता यौवना शिला ॥ मध्यमा सर्वयोग्या स्यात् सर्वकर्मार्थसिद्धिदा। मत्स्यमण्डूकशकला रूक्षा वृद्धा शिलाऽशिवा ॥" चीकनी, सांकल के आघात से गम्भीर शब्द करने वाली, सुगन्धवाली, शीतल, कठोर, किसी प्रकार के बिल रहित और तेजस्वी ऐसी यौवना संज्ञक शिला सब कार्य के लिये योग्य है और सब कार्य, धन और सिद्धि को देनी वाली है। मछली, मेंढक के जैसी और रूखी शिला वृद्धा-संज्ञक है, यह अशुम है।
5. पद्य-9. मयमतम् अ. ३३ में लिखा है कि"रेखाबिन्दुकलंकाढ्या सा त्याज्या सर्वयत्नतः ॥” रेखा और बिन्दु आदि कलंकवाली शिला सब प्रकार से त्याग करने योग्य
वत्युसार के बिम्ब परीक्षा प्रकरण में लिखा है कि"बिंबपरिवारमज्झे सेलस्स य वण्णसंकरं न सुहं । समअङ्गलप्पमाणं न सुन्दरं हवइ कइयावि ॥" मूर्ति या मूर्ति के परिकर में पापाण वर्णसंकर (दाग वाला) हो तो अशुम है। एवं मूर्ति का मान ऊँचाई में सम अङ्गल हो तो मूर्ति कभी भी लाभदायक नहीं होती। . आचारदिनकर में चिह्न के परिहार रूप लिखा है कि“प्रतिमायाँ दवरका भवेयुश्च कथञ्चन। समावर्णा न दुष्यन्ति वर्णान्यत्वेऽतिदूषिता ॥" प्रतिमा में यदि अपने वर्ण के रङ्ग की रेखा या दाग हो तो दोष नहीं है, किन्तु दूसरे वर्ण की रेखा या दाग हो तो बहुत दोष वाली है। वसुनंदि कृत प्रतिष्ठासार में लिखा है कि'निर्मलस्निग्धशान्ता च वर्णसारूप्यशालिनी।' प्रतिमा में यदि निर्मल, चिकनी और शान्त ऐसी रेखा या दाग हो, वह