________________
देवतामूर्ति-प्रकरणम्
35
अग्र भाग माना है, जिसे उस दिशा के अग्र भाग में मूर्ति का शिर रखना चाहिये, परन्तु इस भ्रन्थकार मण्डन सूत्रधार ने पश्चिम या दक्षिण दिशा को अग्र भाग मानकर उस तरफ का शिर बनाना लिखते हैं। यह किसी दूसरे प्रन्थ से प्रमाण रूप से देखने में नहीं आया । उपरोक्त कथन से मालूम होता है कि शिला का जो अग्र भाग हो, उस तरफ का मूर्ति का शिर और मूल भाग के तरफ का मूर्ति का पैर बनाना चाहिये। उसका विशेष खुलासा बृहत्संहिता अ. ४५ श्लोक ७ में लिखा है कि“ लिङ्गं वा प्रतिमा वा द्रुमवत् स्थाप्या यथादिशं यस्मात् । तम्माच्चिह्नयितव्या दिशो द्रुमस्योर्ध्वमध वाधः ॥”
शिव लिङ्ग और प्रतिमाएँ वृत्त की तरह स्थापन करना चाहिये। जैसे वृक्ष का पूर्व भाग वह प्रतिमा का पूर्व भाग मुख, इस प्रकार दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, अधो और ऊर्ध्व भाग वृक्ष का, उसी प्रकार प्रतिमा का दाहिना, पृष्ठ और बाँया भाग बनाना चाहिये तथा अधोभाग पैर और ऊर्ध्वभाग शिर होना चाहिये । इसके प्रमाण रूप इसी श्लोक की टीका में भट्टोत्पल काश्यपशिल्प का प्रमाण देते हैं
“वृक्षवत् - प्रतिमा कार्या प्राग्भागाद्युपलक्षिता ।
पादाः पादेषु कर्त्तव्याः शीर्षमूर्ध्वे तु कारयेत् ॥”
इसका का अर्थ ऊपर मुजब है ।
काश्यप- शिल्प अ. ७९ श्लोक २३ में लिखा है कि" वृक्षस्य पूर्वभागे तु मुखं पृष्ठं तु पश्चिमे ।
दक्षिणे सव्यपार्श्वं स्याद् वामपार्श्वं तथोत्तरम् ॥”
वृक्ष का जो पूर्व भाग है यह प्रतिमा मुख, पश्चिम भाग पीठ, दाहिना भाग दाहिना अङ्ग और उत्तर भाग बाँया अङ्ग समझना ।
4. पद्य - 8. मयमतम् ग्रंथ में अ. ३३ में लिखा है कि
“ टंकघातादिमृद्वी या मन्दपक्वेष्टकोपमा ॥
शिला बाला मता तज्ज्ञैः सर्वकर्मसु निन्दिता ।”
टांकणें का आघात करने से नरम मालूम हो और ईंट की तरह मंद पकी
हुई हो, ऐसी बाला संज्ञक शिला को सब कार्य में निंदित माना है ।