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देवतामूर्ति-प्रकरणम्
नहीं रहता । दिशाओं में जो लंबी शिला हो, उसका पुल्लिंग शिला और कोने में जो लंबी शिला हो, उसको नपुंसक शिला कहते हैं। यदि शिला नीचे और ऊपर लंबी हो तो ऊपर का अग्र भाग और नीचे का मूल भाग समझना । उसमें पूर्व दिशा का मुख और पश्चिम दिशा का पृष्ठ भाग बनाना चाहिये ।
मयमतं अ. ३३ में लिखा है किमुखमुद्धरणेऽधऽशमूर्ध्वभागं शिरो विदुः ॥
शिलामूलमवाक्प्रत्यगुदग्रं प्रागुदग्दिशि । अग्रमूर्ध्वमधोमूलं पाषाणस्य स्थितस्य तु ॥ १८ ॥
नैर्ऋत्येशान देशाग्रा वह्न्यग्रा वह्निवायुंगा ॥
शिला के नीचे के भाग का मुख और ऊपर के भाग का शिर जानना । शिला का मूल दक्षिण और पश्चिम में तथा अग्रभाग पूर्व और उत्तर दिशा में जानना । अग्र यह ऊर्ध्वभाग और मूलं यह अधोभाग समझना । इस प्रकार भूमि में शिला रहती है। जो शिला ईशान और नैर्ऋत्य कोण में लंबी हो, उसका ईशान में अग्र और नैर्ऋत्य में 'मूल है, तथा अग्नि और वायुकोण में जो शिला लंबी हो, उसका अग्नि कोण में अग्र और वायुकोण में मूल रहता है
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काश्यपशिल्प अ. ४९ में कहा है कि
" प्रागग्रां चोदगग्रां वा शिलां संग्राह्य देशिकः ।
प्रागग्रे पश्चिमं मूल—- मुदगग्रं तु दक्षिणे ॥ ६१ ॥ अधोभागं मुखं ख्यातं पृष्ठमूर्ध्वगतं भवेत् ॥ ६२ ॥”
पूर्व और उत्तर दिशा में अग्र भाग वाली शिला ग्रहण करनी चाहिये । शिला का पूर्व दिशा में अग्रभाग और पश्चिम दिशा में मूल भाग है । एवं उत्तर दिशा में अग्रभाग और दक्षिण दिशा में मूल भाग है। शिला के नीचे के भाग को मुख और ऊपर के भाग को पृष्ठ समझना । शिल्परन के पूर्व भाग में अध्ययन १४ श्लोक १६ में लिखा है कि“पूर्वोत्तरशिरोयुक्ता घण्टानाद-स्फुलिङ्गवत् । ”
शिला के पूर्व और उत्तर दिशा के भाग को शिर जानना ||
उपरोक्त कई एक शिल्प ग्रंथों में पूर्व और उत्तर दिशा में शिला का