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________________ देवतामूर्ति-प्रकरणम् स्त्रिया पुंसा च भूपीठे कृते स्याद् राष्ट्रनाशनम् । एवं विज्ञाय तद्योग्यामानयेदम्बरावृताम् ॥ २९ ॥ 33 स्त्री शिला से लिङ्ग और देवमूर्ति, पुंशिलासे पीठिका, नपुंसक शिला से लिङ्ग और पीठिका एवं स्त्री और पुंलिङ्ग शिला से प्रासाद तल, इस प्रकार स्त्रीलिङ्ग शिला से पुरुष जाति की देवमूर्त्तियाँ और पुल्लिंग शिला से स्त्री जाति की देवी मूर्त्तियाँ बनावे तो राज्य और राजा का विनाश होवे । 3. पद्य - 7. मानसार अ. ४२ में स्पष्ट लिखा है कियत्पूर्वोत्तराग्रं ज्ञात्वा मूलं दक्षिणपश्चिमे । अधोभागे मुखं ज्ञात्वा शयने चापरोर्ध्वकम् ॥४ ॥ पूर्वाग्राश्च शिलाः सर्वा दक्षिणे सव्यपार्श्वके । उत्तरे वामभागं स्यादुत्तराग्रशिले विदुः ॥५ ॥ पूर्वं तु दक्षिणं पार्श्वं पश्चिमं वामपार्श्वकम् । ईशानाग्रशिलानां तु मूलं नैरित्यवंशकम् ॥६॥ अन्यकोणेषु सर्वेषु मूलमयं न विद्यते । दिक्षु दीर्घशिलाः सर्वाः पुंशिलाश्च प्रकीर्त्तिताः ॥७ ॥ • चतुष्कोणेषु दीर्घं स्याच्छिला षण्ढः प्रकीर्त्तितः । प्रभूतं च स्थितं सर्वं पृथ्व्याकाशायतं तथा ॥८ ॥ ऊर्ध्वायमधोमूलं प्रागुक्तादिक् तपेशके । शिला का अग्रभाग पूर्व और उत्तर में, तथा मूल भाग दक्षिण और पश्चिम में रहता है। शिला नीचे मुख करके औंधी सोती रहती है, ऐसा शिल्प शास्त्रकार मानते हैं। जिसे नीचे के भाग का मुख और ऊपर के भाग काशिर भाग बनाना कहते हैं। पूर्व दिशा में जिस शिला का अप्रभाग हो, उसका दाहिना अङ्ग दक्षिण दिशा में और बाँया अङ्ग उत्तर दिशा तरफ जानना । यदि उत्तर दिशा में शिला का अग्रभाग हो, तो उसका दाहिना अङ्ग पूर्व दिशा में और बाँया अङ्ग पश्चिम दिशा में जानना । जिस शिला का अग्रभाग ईशान कोण में हो तो उसका मूल भाग नैर्ऋत्य कोण में जानना । दूसरे अग्नि और वायुकोण में शिला का मूल और अप्रभाग
SR No.002234
Book TitleDevta Murti Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Bhagvandas Jain, Rima Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1999
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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