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देवतामूर्ति-प्रकरणम्
विशिष्ट विवेचन
1. पद्य - 4.
मानसार अध्ययन ४२ में कहा है कि'मूलमग्रं च मध्यं च समाकारं तु पुंशिला । स्थूलमूलं कृशाग्रं स्यात् स्त्रीशिला तु प्रकीर्त्तिता ॥
स्थूलाग्रं च कृशं मध्ये स्थूलं नपुंसकं शिला ।'
जिस शिला का मूल भाग, अग्रभाग और मध्य भाग बराबर हो, वह पुंशिला है। मूल में स्थूल और अग्रभाग में कृश हो, वह स्त्री शिला है । मूल में स्थूल अग्रभाग में कृश और मध्यभाग में स्थूल हो वह नपुंसक शिला है।
फिर भी कहा है कि
'चतुरस्त्रं पुंशिला प्रोक्तं वृत्तं स्याद् वनिता शिला ।
बहुधा चाग्रभृंगं स्यान्नपुंसकं तमुदाहृतम् ॥'
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जो शिला समचोरस हो वह पुंशिला है । गोल हो वह स्त्रीशिला और
बहुत शाखा वाली हो वह नपुंसक शिला है ।
फिर भी कहा है कि
“कांसका ध्वनिनादं स्यात् स्त्रीशिला तु प्रकीर्त्तिता ।
रत्नभाण्डध्वनिनादं शिला च पुरुषं स्मृतम् ॥
निर्ध्वनि च शिला सर्वं न स्त्री न पुमान् विदुः ॥ "
जो शिला करताल के जैसी आवाज वाली हो वह स्त्री शिला, रत्न के बरतन के आवाज जैसी आवाज वाली हो वह पुरुष शिला और बिना शब्दवाली वह नपुंसक शिला है ।
फिर भी कहा है कि
" तालध्वनिनादं स्याच्छिला वल्ली प्रकीर्त्तिता ।
महिषध्वनिसंयुक्ता शिला वृक्षा प्रकीर्त्तिता । पूर्वोक्तार्थं ध्वनिनादं बावना च शिला भवोत् ॥”