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________________ 192 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान उनका विशिष्ट अध्ययन महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष दे सकता है। इससे ग्रन्थकारों का समय तय करने में बहुत सहायता मिल सकती है। साथ ही लुप्त कड़ियों को प्रकाश में लाया जा सकता है। प्रस्तुत निबन्ध में आचार्य अकलंकदेवरचित आप्तमीमांसाभाष्य तथा सविवृति लघीयस्त्रय, इन दो ग्रन्थों के उद्धरणों का संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास है। अकलंकदेव (प्रायः ईस्वी ७२०-७८०) जैन परम्परा के एक प्रौढ़ विद्वान् एवं उच्चकोटि के दार्शनिक ग्रन्थकार हैं। उनके साहित्य में तर्क की बहुलता और विचारों की प्रधानता है। अकलंक का लेखन-समय बौद्धयुग का मध्याह्न काल माना जाता है। उस समय दार्शनिक, धार्मिक, राजनैतिक और साहित्यिक क्षेत्र में बौद्धों का अधिक प्रभाव. था। संभवतः इसी कारण अकलंक के साहित्य में बुद्ध और उनके मन्तव्यों की समीक्षा/आलोचना बहुलता से पायी जाती है। ___अकलंकदेव ने स्वामी समन्तभद्रकृत देवागम/आप्तमीमांसा पर भाष्य लिखा है।', इसे देवागम विवृति भी कहा गया है। आठ सौ श्लोक प्रमाण होने से इसे अष्टशती भी कहते हैं। इसके देवागमभाष्य और आप्तमीमांसाभाष्य नाम भी प्रसिद्ध हैं। यह भाष्य इतना जटिल एवं दुरूह है कि बिना अष्टसहस्री (विद्यानन्दिकृत व्याख्या) का सहारा लिए इसका अर्थ करना अत्यन्त कठिन है। ___ विवेच्य ग्रन्थ आप्तमीमांसाभाष्य एवं लघीयस्त्रय में भी बौद्ध-साहित्य के ही अधिक उद्धरण मिलते हैं। इससे पता चलता है कि अकलंकदेव बौद्धों के मन्तव्यों/सिद्धान्तों के प्रबल विरोधी रहे, परन्तु यह विरोध किसी दुराग्रह के कारण नहीं रहा, अपितु सिद्धान्त-भेद के कारण उन्होंने अपने साहित्य में बौद्धों की पग-पग पर समीक्षा/आलोचना की है। १. आप्तमीमांसाभाष्य (अष्टशती) - ___ अकलंकदेव ने आप्तमीमांसाभाय (अष्टशती) में कुल दश उद्धरण दिये हैं। कारिका २१ के भाष्य में “नोत्पत्यादिः क्रिया क्षणिकस्य तदसंभवात्। ततोऽसिद्धो हेतुः" यह वाक्य उद्धृत किया है। इसका निर्देश स्थल नहीं मिल सका है। कारिका २१ के ही भाष्य में “तस्मात् सूक्तम्” करके निम्नलिखित वाक्य उद्धृत किया है-२ यदेकान्तेन सदसद्वा तन्नोत्पत्तुर्महति, व्योमबन्ध्यासुतवत्" १. आप्तमीमांसाभाष्यं-अष्टशती, अकलंकदेव, संकलन-डा० गोकुलचन्द्र जैन, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, सन् १६८९ २. वही, कारिका २१ भाष्य ३. वही, कारिका २१ भाष्य
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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