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________________ विज्ञानवाद पर आचार्य अकलंक और उनके टीकाकार 173 होता रहता है और सादृश्य में एकत्व का भ्रम हो जाता है। यह संतति या सन्तान एक वस्तु नहीं, किन्तु काल्पनिक है, अवस्तु है। सन्तान की घटना प्रतीत्यसमुत्पाद पर अवलम्बित रहती है। क्षणिकवाद में यह कारणकार्य व्यवस्था बन नहीं पाती। वस्तुभूत एकत्व का अपलाप करने से सन्तान की घटना भी नहीं हो सकती।' बौद्धदर्शन में सत्त्व और क्षणिकत्व के बीच अविनाभाव संबंध माना है। तदनुसार संस्कृत-असंस्कृत सभी पदार्थ क्षणिक हैं। क्षणिक का अर्थ है- वस्तु का जो स्वरूप उत्पत्ति के बाद अस्थायी है वह क्षण है और वह क्षण जिसके होगा वह क्षणिक है। क्षणिकवाद का यह विकसित रूप है। प्रारंभिक बौद्धधर्म में संस्कृत के तीन लक्षण निर्दिष्ट हैं- उत्पाद, व्यय और स्थिति का अन्यथात्व। ये तीनों एककालिक नहीं; भिन्नकालिक हैं। पहले उत्पत्ति फिर जरा और फिर विनाश, इस क्रम से वस्तु में अनित्यता-क्षणिकता सिद्ध है। उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के तीन .क्षण भिन्न होते हैं। यह चित्त की आयु के संदर्भ में अभिधम्मत्थ संगहो में कहा है अर्थात् चित्तक्षण क्षणिक है। वह तीन क्षणों तक रहता है। यह क्षणिकता चित्त-नाम के साथ ही नहीं बल्कि रूपभौतिक पदार्थ के साथ भी है। वह वस्तु सत् है। उसकी आयु सत्रह क्षण मानी गई है। ये सत्रह क्षण चित्तक्षण हैं अर्थात् एक चित्तक्षण= तीन क्षण होने से ५१ क्षण की आयु रूप भी मानी गई है। अतः इस क्षणिकता में और योगाचार. सम्मत क्षणिकता में अन्तर महत्त्वपूर्ण है। आलयविज्ञान में ५१ चैत्तसिकों में से मात्र ५ सर्वत्रग (स्पर्श, मनस्कार, वेदना, संज्ञा और चेतना) चैतसिक ही संप्रयुक्त होते हैं। एक ही आलयविज्ञान संसार की समाप्ति तक प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि वह क्षणिक होता है। आलयविज्ञान की धारा (सन्तति) में अनेक क्षण होते हैं। प्रत्येक क्षण अपने समय में ही विद्यमान रहता है और दूसरे क्षण में विनष्ट हो जाता है। वह पूर्वापर क्षणों का कार्यकारण रूप से निरन्तर प्रवृत्त होते हुए धारावाहिक रूप से संसार समाप्ति पर्यन्त प्रवृत्त होता है। इसी धारावाहिकता के संदर्भ में ही कदाचित् लंकावतार सूत्र में आलयविज्ञान को स्थिर विज्ञान कह दिया है। योगाचार-विज्ञानवाद से पूर्ववर्ती सर्वास्तिवाद में सत् की व्याप्ति त्रैकालिक १. आप्तमीमांसा, का० २६ २. उत्पादानन्तरस्थायि स्वरूपं यच्च वस्तुनः । तदुच्यते क्षणः सोस्ति यस्य तत् क्षणिकं मतम् । तत्त्वसंग्रह, ३८८ ३. अंगुत्तरनिकाय, तिकनिपात ४. अभिधम्मत्थसंगहो, ४.८ .
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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