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________________ 168 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान लक्षण में परिकल्पित लक्षण के अभावतन्त्र को सिद्ध करते हुए परिनिष्पन्न या परमार्थ तत्त्व की स्थापना करता है। धर्मकीर्ति आदि आचार्यों के इस विज्ञानवाद का खण्डन अकलंक ने अपने ग्रंथों में बड़े विस्तार से किया है, विशेष रूप से अकलंकग्रन्थत्रय में। बौद्धदर्शन में चार प्रत्ययों से चित्त और चैतसिकों की उत्पत्ति होती है- (१) समनन्तर प्रत्यय (पूर्वज्ञान) (२) अधिपतिप्रत्यय (चक्षुरादि इन्द्रियां) (३) आलम्बन प्रत्यय (पदार्थ) और (४) सहकारी प्रत्यय (आलोक आदि)। ये चार प्रत्यय अर्थ और आलोक से सम्बद्ध हैं, जो ज्ञान के कारण हैं। नैयायिक आदि दर्शनों में सन्निकर्ष को प्रमाण में कारण माना गया है। . अकलंक ने इस सहोपलम्बननियम का खण्डन किया है। उनका कहना है कि ज्ञान अर्थ का कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि वह इतना ही जानता है कि यह अमुक अर्थ है'। वह यह नहीं जानता कि 'मैं इस अर्थ से उत्पन्न हुआ हूं।' अन्यथा कोई विवाद ही नहीं रहेगा। ज्ञान का अर्थ के साथ अन्वय-व्यतिरेक न होने से उनमें कारणकार्यभावः, भी नहीं हो सकता है। बौद्ध दार्शनिक परम्परा के इतिहास में यह स्थापित तथ्य है कि माध्यमिक सम्प्रदाय के शून्यवाद के विपरीत विज्ञानवाद का उत्थान हुआ। तदनुसार जगत् के समस्त पदार्थ शून्य भले ही हों पर शून्यात्मक प्रतीति के ज्ञापक विज्ञान को सत्य पदार्थ अवश्य स्वीकार किया जाना चाहिए। चित्त, मन अथवा बुद्धि की इस अभूतपूर्व प्रतिष्ठा के कारण ही इसे विज्ञान कहा गया है। यह उसका आध्यात्मिक नाम है। धार्मिक और व्यावहारिक दृष्टि से इसे योगाचार कहा गया है। इसमें शमथ-विपश्यना रूप योगमार्ग का आचरण किया जाता है। मैत्रेयनाथ का अभिसमयालंकार तथा असंग का योगाचार भूमिशास्त्र योगाचार के विशिष्ट प्रतिपादक ग्रन्थ हैं तथा वसुबन्धु की विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि और असंग का आर्य सन्धिनिर्मोचनसूत्र विज्ञानवाद के प्रतिष्ठापक ग्रन्थ हैं। शान्तरक्षित जैसे आचार्यों ने भी इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। विज्ञानवाद की दृष्टि में बाह्य पदार्थ की सत्ता नहीं। मात्र चित्र-विचित्र रूपों में वह दिखाई देता है।' यही विज्ञानवाद का अद्वयवाद है। यह विज्ञान चित्त का काल्पनिक परिणमन है, वास्तविक नहीं। अवस्था भेद की दृष्टि से विज्ञान आठ प्रकार का है- चक्षुर्विज्ञान, श्रोतृविज्ञान, घ्राणविज्ञान, जिहाविज्ञान, कामविज्ञान, मनोविज्ञान, क्लिष्टमनोविज्ञान और आलयविज्ञान। १. दृश्यते न विद्यते बाह्य चित्तं चित्रं हि दृश्यते। देहभोगप्रतिष्ठानं चित्तमात्र वदाम्यहम् ।। लंकावतार, ३.२७
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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