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________________ विज्ञानवाद पर आचार्य अकलंक और उनके टीकाकार 167 नहीं है। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि धर्मकीर्ति की दृष्टि में यह चित्त मन की सृष्टि नहीं है, बल्कि वह स्वयं प्रकाश है, स्वतः दैदीप्यमान है (प्रमाणवार्तिक २-३५४)। इसका साक्षात्कार किया जा सकता है। यह सत् क्षणिक है। इसे नित्य या शाश्वत मानना भ्रम है। अद्वैतवाद में वह नित्य रहता है जो धर्मकीर्ति की दृष्टि से सही नहीं है। शान्तरक्षित और कमलशील ने इसी तत्त्व को और अधिक समझाने का प्रयत्न किया है। इस विज्ञानवाद में विज्ञान के लिए आत्मा की आवश्यकता नहीं है, यह स्वसंवेद्य है। इसमें चित्त तत्त्व ही सभी व्यवस्थाओं का आधारभूत तत्त्व है। उसका चैतन्य तत्त्व अनित्य, सविशिष्ट, प्रज्ञा एवं करुणा का युगपत् पुञ्ज है। दार्शनिक दृष्टि से विज्ञानवाद में दो तत्त्व हैं- परमार्थ सत्त्व और संवृतिसत्त्व। परमार्थसत्त्व में विज्ञप्तिमात्रता परिनिष्पन्न लक्षण चित्रमात्रता, शून्यता, धर्मधातु आदि आते हैं और संवृति हो जाता है। अतः इन्द्रिय और मन को ही ज्ञान में कारण माना जाना चाहिए। अर्थ तो ज्ञान का विषय ही हो सकता है, कारण नहीं। इसी प्रसंग में अकलंक ने सन्निकर्ष और क्षणिक अर्थ को भी ज्ञान के प्रति कारण मानने की आलोचना की। इसी तरह आलोक के साथ ज्ञान का अन्वय-व्यतिरेक न होने से आलोक भी ज्ञान का कारण नहीं हो सकता। · प्रमेय के सन्दर्भ में अकलंक ने कहा कि स्वरूपास्तित्व का ही नाम द्रव्य, ध्रौव्य . या गुण है। 'सन्तान' का भी यही काम करना है। वह नियत पूर्वक्षण का नियत • उत्तरक्षण के साथ ही कार्यकारणभाव बनाता है, क्षणान्तर से नहीं। अन्तर यह है कि .बौद्ध उस सन्तान को काल्पनिक कहते हैं, जबकि जैन उस द्रव्यांश को पर्यायक्षण की तरह वास्तविक कहते हैं। इसी प्रसंग में अकलंक ने सर्वथा क्षणिक पदार्थ में अर्थ· क्रियाकारित्व का भी खण्डन किया है और कहा है कि अर्थ नित्यानित्यात्मक वस्तु में ही सम्भव है। क्षणिक में अन्तिम रूप नहीं है, तथा नित्य में उत्पाद और व्यय नहीं है। उभयात्मक वस्तु में ही क्रम, यौगपद्म तथा अनेक शक्तियां सम्भव हैं। इसी प्रसंग में विभ्रमवाद, संवेदनाद्वैतवाद आदि का भी खण्डन किया है। अकलंकग्रन्थत्रय (पृ० ३६-४१) में इस तथ्य पर विशेष प्रकाश डाला गया है। . विज्ञानवादी दर्शन बाह्यार्थ का निषेध करता है और तद्विषयक सिद्धान्तों को भ्रान्तिमूलक सिद्ध करता है। वह परिकल्पित लक्षणों के साथ निःस्वभावता की व्याख्या करता है, विज्ञान की पारमार्थिक सत्ता को एक दार्शनिक रूप देने के लिए परतन्त्र लक्षण की व्याख्या करते हुए अल्पविज्ञान की स्थापना करता है। साथ ही परतन्त्र
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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