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विज्ञानवाद पर आचार्य अकलंक और उनके टीकाकार
डॉ० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' *
विज्ञानवाद महायानी बौद्धदर्शन का प्रमुख सम्प्रदाय है, जिसे असंग (लगभग तृतीय सदी ई०) ने संस्थापित किया था, और वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि आचार्यों ने विकसित किया था। असंग ने आर्य मैत्रेयनाथ के सूत्रालंकार, अभिसमयालंकार, उत्तरतन्त्र आदि ग्रन्थों के आधार पर अभिधर्म समुच्चय और महायान संग्रह की रचना की। उसके बाद असंग के भाई वसुबन्धु ने अभिधर्मसमुच्चय, सूत्रालंकार, पंचस्कन्ध, त्रिंशिका, विंशिका आदि प्रकरण ग्रन्थ लिखकर विज्ञानवाद की नींव मजबूत कर दी - वसुबन्धु के शिष्य दिङ्नाग ने इन सभी ग्रन्थों का आधार लेकर प्रमाण समुच्चय ग्रन्थ लिखा। जिस पर धर्मकीर्ति ने टीका लिखकर प्रमाणविनिश्चय, प्रमाणवार्तिक, वादन्याय, न्यायबिन्दु, सन्तानन्तरसिद्धि आदि ग्रन्थ लिखे और उसे और भी व्यवस्थित कर दिया । यहां तक निराकार और साकार विज्ञानवाद जैसी शाखायें खड़ी हो गई थीं, जिनका मूल सम्बन्ध बाह्य रूपार्थ से आभसित वासना से था ।
धर्मकीर्ति का समय आचार्य महेन्द्रकुमारजी ने बड़ी पर्यालोचना के बाद सन् ६२० से ६६० तक निश्चित किया । इस समय तक समूची भारतीय दार्शनिक परम्पराएं लगभग सुव्यवस्थित हो चुकी थी। जैन दर्शन का भी यह सर्वोच्च बुद्धिवादी युग था । इस युग पर बौद्ध दार्शनिकों का विशेष प्रभाव रहा है। आचार्यश्री ने अकलंक का समय ई० ७२० से ७८० सिद्ध किया है । धर्मकीर्ति और अंकलंक के बीच लगभग ६०० वर्ष का अन्तराल रहा है, जिसमें धर्मकीर्ति के शिष्यों की मुख्य भूमिका देखी जा सकती है। विशेषतः शान्तरक्षित का समय ( ई० ७६२ ) अकलंक का समय रहा है।
अकलंक के प्रमुख ग्रन्थ हैं - तत्त्वार्थवार्तिक सभाष्य, अष्टशती, लघीयस्त्रय सविवृत्ति, न्यायविनिश्चय सविवृत्ति, सिद्धिविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह । इन ग्रन्थों में से आचार्य विद्यानन्द ने अष्टशती पर अष्टसहस्री और आचार्य प्रभाचन्द्र ने लघीयस्त्रय पर न्यायकुमुदचन्द्र नामक टीकायें लिखकर जैन दार्शनिक मान्यताओं को प्रस्थापित
अध्यक्ष, पालि- प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय न्यू एक्टेंशन एरिया सदर, नागपुर - ४४०००१