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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
सामने आए हैं- (१) अंतरज्ञानात्मक या लोकोत्तर (२) आनुभाविक या लौकिक एवं (३) स्व-चेतना। चेतना की परिभाषा क्या है? यह बहुत स्पष्ट तो नहीं है, लेकिन अनेक लोग इसे मस्तिष्क की शरीर क्रियात्मक मशीन का एक उत्पाद मानते हैं। वे इसे संवेदन और अनुभूति का आधार मानते हैं। टार्ट के समान प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक चेतना को एक विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक ऊर्जा मानते हैं जो मन और मस्तिष्क को अपनी क्रियाओं के लिए सक्रिय करती है। यह एक जैवीय कम्प्यूटर है जिसकी कार्यक्षमता अनेक दृश्य (अनुभूति, शरीर क्रियाएँ, शिक्षा, संस्कृति) और अदृश्य (कर्म आदि कारकों) पर निर्भर करती है। मस्तिष्क के विशिष्ट केन्द्रों के समान चेतना की भी अनेक विविक्त अवस्थाएं होती हैं जो विशिष्ट गुणों की निरूपक होती हैं। योगी
और वैज्ञानिक तथा विद्यार्थी और समान्य जन की चेतना की अवस्थाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। हमारे मस्तिष्क की क्रियाएँ/ दशाएं चेतना की इन अवस्थाओं की प्रतीक हैं। आज के वैज्ञानिक मानते हैं कि सामान्य चेतना द्वि-रूपिणी होती है- भौतिक और. मानसिक, मूर्त और अमूर्त। इसका मूर्त रूप हमारी सामान्य जीवन क्रियाओं का निरूपक है और मानसिक रूप ज्ञान-दर्शन के गुणों का प्रतीक है। यह स्पष्ट है कि ये दोनों रूप अविनाभावी- से लगते हैं। आज की ये वैज्ञानिक मान्यताएँ अभी तक तो चेतना या आत्मा की अमूर्तता पुष्ट नहीं कर पाई हैं, पर वे इसी दिशा की ओर अभिमुख हो रही है, ऐसा लगता है। इस तरह आज का विज्ञान अकलंक के बुद्धिवादी युग की धारणाओं को प्रयोगवाद का स्वरूप देता दिखता है। सहायक पाठ्यसामग्री : १. वर्णी, जिनेन्द्र : जैनेन्द्र सिद्धांत कोश २-३, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १६७१-७२ २. वाचक, उमास्वाति : तत्त्वार्थसूत्र, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, काशी, १६७६ ३. तथैव : सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, राजचन्द्र आश्रम, अगास, १६३२ ४. आचार्य, पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९७१ ५. जैन, एन०एल० : साइंटिफिक कंटेंट्स इन प्राकृत केन्नस, पा० विद्यापीठ, काशी
१६६६ ६. शास्त्री, बालचन्द्र : जैन लक्षणावली भाग १-२, वीर सेवा मंदिर, दिल्ली १६७२ ७. भट्ट, अकलंक : तत्त्वार्थवार्तिक भाग, १-२, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली १६५१-५३ ८. जैनी, पी०एस० : जैन पाथ आव प्योरिफिकेशन, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली,
१६८० ६. आचार्य, कुंदकुंद : प्रवचनसार, राजचन्द्र आश्रम, अगास, १६८४