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प्रकाशकीय
सन् 1996 में परमपूज्य उपाध्याय श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज के आशीर्वाद से विशिष्ट दार्शनिक उपलब्ध व अप्रकाशित ग्रंथों के प्रकाशन हेतु 'प्राच्य श्रमण भारती' (मुजफ्फरनगर) का जन्म हुआ, जो अत्यंत शीघ्र भोग भूमि के प्राणियों की भाँति युवावस्था को प्राप्त हुई। उसके तत्त्वावधान में अल्पकाल में. ही 35 ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है तथा शीघ्र ही अनेक ( लगभग 17 ग्रंथ) प्रकाशित होने वाले हैं।
महान् आचार्य कुंदकुंद स्वामी की परम्परा के आचार्य उमास्वामी ने समस्त जैन सिद्धांतों एवं ज्ञान को सूत्रों में बद्ध करते हुए 'तत्त्वार्थसूत्र' के रूप में आगम की महान सेवा की उस युग में सूत्र रूप में कथन करने की ही परम्परा अधिक पायी जाती है । तत्त्वार्थसूत्र के रहस्यों का उद्घाटन करने हेतु परवर्ती महान् आचार्यों की भिन्न-भिन्न कालों में अनेक टीकाएँ उपलब्ध होती हैं. 1. सर्वार्थसिद्धि श्री पूज्यपाद, 2. गंधहस्ति महाभाष्य श्री समन्तभद्राचार्य 3. राजवार्तिक स्वामी अकलंकदेव 4 श्लोकवार्तिक श्री विद्यानन्दाचार्य 5. तत्त्वार्थवृत्ति-भास्करानंदाचार्य 6. अर्हत्सूत्र वृत्तिका 7. तत्त्वार्थाधिगम-श्री उमास्वाति आचार्य 8. तत्वार्थ सार 9 अर्थ प्रकाशिका 10. लोक व मोक्ष के रहस्योद्घाटन के लिए कितने ही भाष्य निर्मित हुए जिनमें बहुत से अनुपलब्ध हैं। इन सभी भाष्यों में श्री आचार्य अकलंक भट्ट विरचित तत्वार्थवार्तिक की महत्ता अनुपम है। जो आचार्य पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि टीका को समझने में विशेष सहायक है। महान् आचार्य के विषय में श्रवणबेलगोला के अभिलेख में उल्लिखित है
ततः परं शास्त्रविदां मुनीनामग्रेसरोऽभूदकलङ्कसूरिः । मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलार्थाः प्रकाशिता यस्य वचोमयूखैः ।