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86 * कंस का जन्म
गयी। उसने उनकी इन्द्रजाल के अनेक अद्भुत चमत्कार कर दि:खलाये। देखकर वसुदेव को भी वह विद्या सीखने की इच्छा हुई। इसलिए उन्होंने इन्द्रशर्मा से कहा—यदि यह विद्या मुझे भी सिखायेंगे तो बड़ी कृपा होगी।"
इन्द्रशर्मा ने कहा—“बेशक, यह विद्या सीखने योग्य है। इसे सीखने में अधिक परिश्रम भी नहीं पड़ता। शाम से इसकी साधना आरम्भ की जाय, तो सुबह सूर्योदय के पहले ही पहले यह विद्या सिद्ध हो जाती है। परन्तु साधना के समय इसमें अनेक प्रकार के विध्न और बाधाएँ आ पड़ती हैं। कभी कोई डराता है, कभी मारता है, कभी हँसता है और कभी ऐसा मालूम होता है, मानो हम किसी सवारी में बैठे हुए, कहीं चले जा रहे हैं। इसलिए इसकी साधना के समय एक सहायक की जरूरत रहती है।"
वसुदेव ने निराश होकर कहा-“यहां पर विदेश में मेरे पास सहायक कहां? क्या मैं अकेला इसे सिद्ध न कर सकूँगा?"
इन्द्रशर्मा ने कहा-“कोई चिन्ता की बात नहीं आप अकेले ही सिद्ध करिए। मैं आप की सहायता के लिए हर वक्त यहां पर मौजूद रहूंगा। काम पड़ने पर मेरी यह स्त्री-वनमाला भी हमें सहायता कर सकती है।" ___इन्द्रशर्मा के यह वचन सुनकर वसुदेव यथाविधि उस विद्या की साधना करने लगे। रात के समय जब वह उस कपटी के आदेशानुसार जप तप में लीन हो गये, तब वह उन्हें एक पालकी में बैठाकर वहां से भाग चला। उसने वसुदेव को पहले ही समझा दिया था, कि साधना के समय इस तरह का भ्रम हो रहा है। इस प्रकार इन्द्रशर्मा रात भर में उन्हें गिरितट से बहुत दूर उड़ा ले गया। सुबह सूर्योदय होने पर वसुदेव विशेषरूप से सजग हुए यह बात उनकी समझ में आ गयी कि उन्हें वह कपटी विद्याधर पालकी में बैठाकर कहीं उड़ाये जा रहा है।
अब और अधिक समय उस पालकी में बैठना वसुदेव के लिए कठिन हो गया। वे तुरन्त उस पालकी से कूदकर एक और को भागे। यह देख, इन्द्रशर्मा ने उनका पीछा किया। वे जहाँ जाते, वहीं पर वह जा पहुँचा। दिन भर यह दौड़ होती रही। न तो वसुदेव ने ही हिमत छोड़ी न इन्द्रशर्मा ने ही उनका पीछा छोड़ा। अन्त में शाम के समय न जाने किस तरह उसे धोखा