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श्री नेमिनाथ-चरित 83
वसुदेव को उसके हाथों में सौंपकर अन्तर्धान हो गया। इसके बाद बुढ़िया ने विलक्षण हँसी करते हुए कहा - " हे कुमार ! तुम ने फिर क्या विचार किया ? अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है । मैं चाहती हूँ कि तुम सहर्ष मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लो, जिससे मुझे किसी दूसरे उपाय से काम न लेना पड़े । "
इसी समय अपनी सखियों के साथ वहां नीलयशा भी आ पहुंची। उसे देखकर बुढिया ने कहा - " हे नीलयशा ! यही तेरा भावी पति वसुदेव कुमार है!” यह सुनते ही नीलयशा वसुदेव को लेकर आकाश मार्ग में चली गयी।
दूसरे दिन सुबह बुढ़िया ने वसुदेव के पास पहुंच कर कहा - "हे कुमार ! मेघप्रभ वन से घिरा हुआ यह हीमान पर्वत है । इस पर्वत पर ज्वलन का पुत्र अंगारक, जो चारणयमुनिओं का आश्रम रूप है, वह अपनी विद्याओं को फिरसे सिद्ध कर रहा है। उसे अभी इस कार्य में बहुत समय लगेगा, किन्तु यदि आप उसे दर्शन दें, तो उसका यह कार्य शीघ्र सिद्ध हो जाने की संभावना है। क्या आप उस पर इतना उपकार न करेंगे ?
वसुदेव ने कहा- “ नहीं, उसके पास जाने की मेरी इच्छा नहीं है । ' इसके बाद वह बुढ़िया उन्हें वैताढ्य पर्वत पर शिवमन्दिर नामक नगर में ले गयी। वहां पर सिंहदंष्ट्र राजा ने सन्मानपूर्वक उन्हें अपने महल में ले जाकर उनके साथ अपनी कन्या नीलयशा का विवाह कर दिया ।
इसी समय नगर में घोर कोलाहल मचा। यह देख वसुदेव ने द्वारपाल से पूछा, क्या मामला है ? द्वारपाल ने कहा – “महाराज ! शकटमुख नामक एक नगर है, वहां के राजा का नाम नीलवान और रानी का नाम नीलवती था। उनके नीलाञ्जना नामक एक कन्या और नील नामक एक पुत्र था । उन दोनों ने बाल्यावस्था में स्थिर किया था, कि यदि हमसें से किसी एक के पुत्री और दूसरे के पुत्र होगा, तो उन दोनों को ब्याह आपस में ही कर देंगे ।
इसके बाद नीलाञ्जना का व्याह हमारे राजा के साथ हुआ और उसके उदर से नीलयशा नामक पुत्री हुई, जिसका विवाह आपके साथ किया गया है। ऐसा करने का कारण यह था कि हमारे महाराज को एक बार वृहस्पति नामक मुनि ने बतलाया था कि नीलयशा का विवाह अर्ध भरत के स्वामी, विष्णु के पिता, यदुकुलोत्पन्न परम रूपवान वसुदेव कुमार के साथ होगा । इसीलिए