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82 * कंस का जन्म
और विनमि नामक दो पुत्र वहां उपस्थित न थे। फलत: वह दोनों राज्य से वंचित रह गये। बाद में वह राज्य प्राप्त करने के लिए संयमी प्रभु की सेवा करने लगे। उनकी सेवा से सन्तुष्ट हो धरणेन्द्र ने वैताढय पर्वत की दो श्रोणियों का राज्य उन्हें प्रदान किया। दीर्घकाल तक इस राज्य का सुख उपभोग कर, उन दोनों ने अपने अपने पुत्रों को राज्य दे, प्रभु के निकट दीक्षा ले ली और कालान्तर में मोक्ष के अधिकारी हुए। . उनके बाद नमि सुत ने मातंग दीक्षा ग्रहण की और इस प्रकार वे भी स्वर्ग के अधिकारी हुए। उसका वंशधर इस समय प्रहसित नामक एक विद्याधर पति है। मैं उसी की स्त्री हूँ। और मेरा नाम हिरण्यवती है। मेरे पुत्र का नाम सिंहदंष्ट्र है। सिंहदंष्ट्र के एक पुत्री है, जिसका नाम नीलयशा है। उसीको आपने उस दिन उद्यान जाते समय देखा था। वह तनमन से अप पर अनुरक्त है और मन ही मन अपना हृदय आप को अर्पण कर चुकी है। आज विवाह का मुहुर्त बहुत ही अच्छा है। आप इसी समय मेरे साथ चलिये, और उसका पाणिग्रहण कर उसकी मनोकामना पूरी कीजिए।"
बुढ़िया का यह प्रस्ताव सुनकर वसुदेव चिन्ता में पड़ गये। उन्होंने कुछ अनिच्छापूर्वक कहा-“इस समय तो मैं तुम्हारी बात का कोई उत्तर नहीं दे सकता। सुबह तुम मेरे पास आना, उस समय मैं, तुम्हें अपना निश्चय सूचित करूँगा।"
वसुदेव के इस उत्तर से वह बुढ़िया तुरन्त समझ गयी, कि वे इस प्रसंग को टालना चाहते हैं। परन्तु वह आसानी से उनका पीछा छोड़ना न चाहती थी। उसने कुछ रोषपूर्वक कहा—“अच्छी बात है, मैं जाती हूँ। अब या तो मैं ही आप के पास आऊँगी या आप ही मेरे पास आयेंगे।"
इतना कह वह बुढ़िया वहां से चली गयी। वसुदेव ने भी बुढिया की उपेक्षा कर उसकी बात को अपने मस्तिष्क से निकाल दिया। किन्तु कुछ दिनों के बाद ग्रीष्म ऋतु में, जब एक दिन वसुदेव जल क्रीड़ा कर गन्धर्वसेना के साथ एक लताकुञ्ज में सो रहे थे, तब एक भूत उन्हें एक चिता के पास उठा ले गया। वहां पर आंख खोलते ही वसुदेव ने देखा कि एक भयंकर चिता धधक रही है और वह बुढ़िया भयानक रूप बनाये सामने खड़ी है। वह भूत