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श्री नेमिनाथ-चरित * 81 भेज देना। ऐसा करने से इसका विवाह आसानी से हो जायगा और तुम्हें किसी कठिनाई का सामना न करना पड़ेगा।" इसलिए अब आप इसे अपने साथ लेते जाइए। यथा समय इसे अपनी ही कन्या समझकर आप इसके ब्याह का प्रबन्ध कर दीजिएगा।"
विद्याधरों की यह प्रार्थना सुन, मैं उस कन्या के साथ अपने नगर आने को तैयार हुआ। इसी समय वह देव भी वहां आ पहुँचा। उसने हम दोनों को एक विमान में बैठाकर, हमारे नगर में पहुंचा दिया। उसने मुझे बहुतसा सुवर्ण
और मणिमुक्तादिक अनेक रत्न भी भेंट दिये। इस धनराशि से मेरा दरिद्र सदा के लिए दूर हो गया और मेरी गणना नगर के धनीमानी व्यापारियों में होने लगी। सुबह मैं अपने मामा सर्वार्थ और उनकी स्त्री रत्नवती से मिला। वे मेरी सम्पन्नावस्था देखकर परम प्रसन्न हुए। तबसे मैं आनन्दपूर्वक यहीं अपने दिन व्यतीत करता हूँ। इस प्रकार हे वसुदेव! यह गन्धर्वसेना मेरी नहीं, किन्तु एक विद्याधर की कन्या है। इसे वणिक पुत्री समझकर आप इसकी अवज्ञा न कीजिएगा।" .. ___ चारुदत्त के मुख से गन्धर्वसेना का ग्रह वृत्तान्त सुनकर वसुदेव को बड़ा ही आनन्द हुआ और वे पहले की अपेक्षा अब उससे अधिक प्रेम करने लगे।
एक दिन चैत मास में वसुदेव और गन्धर्वसेना रथ में बैठकर उद्यान की सैर करने जा रहे थे उस समय मार्ग में उन्हें मातंग लोगों का एक दल मिला। उनके साथ परम रूपवती एक मातंग कन्या भी थी। उसकी और वसुदेव की चार आँखे होते ही दोनों के मन में कुछ विकार उत्पन्न हो गया। चतुर गन्धर्वसेना से. यह बात छिपी न रह सकी। उसने सारथी को शीघ्रतापूर्वक रथ हांकने की आज्ञा दी, फलत: रथ आगे बढ़ गया और वह मामला जहां का तहां रह गया। वसुदेव और गन्धर्वसेना उपवन में पहुँचे और वहां जल क्रीड़ादिक कर वे दोनों चम्पापुरी लौट आये।
घर आने पर एक मातंगनी वसुदेव के पास आयी और उन्हें आशीश दें, उनके पास बैठ गयी। उसने कहा-“हे वसुदेव कुमार! मैं तुम्हें एक लम्बी
और बहुत पुरानी कहानी सुनाने आयी हूँ, वह सुनिये। पूर्वकाल में जिस समय श्रीऋषभदेव अपना राज्य अपने पुत्रों में बाँटा उस समय दैवयोग से उनके नमि