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80 * कंस का जन्म
और पितृमेध आदि यज्ञों का अनुष्ठानकर उन दोनों को मार डाला। मैं उस जन्म में पिप्पलाद का शिष्य था और मेरा नाम वाग्बली था। मैंने भी यत्र तत्र पशु मेघादि यज्ञों का अनुष्ठान कराया था, इसलिए मृत्यु के बाद मैं घोर नरक का अधिकार हुआ।
नरक से उद्धार पाने पर मैं पांचबार पशु हुआ और क्रूर ब्राह्मणों द्वारा प्रत्येक बार यज्ञ में मेरा वध किया गया। अन्तिम बार टंकण प्रदेश में मैंने बकरे के रूप में जन्म लिया और वहां पर रुद्र द्वारा मेरा वध हुआ। वध के समय चारुदत्त ने मुझे धर्मोपदेश दिया, इसलिए मुझे सौधर्म देवलोक की प्राप्ति हुई इसीलिए चारुदत्त को मैं अपने धर्माचार्य मानता हूँ और यही कारण है, कि मैंने उन्हें सबसे पहले प्रणाम किया है। ऐसा करना मेरे लिये उचित भी था।"
उस देव की यह बातें सुनकर दोनों विद्याधरों को परम सन्तोष और आनन्द हुआ। उन्होंने कहा—“चारुदत्त ने जिस प्रकार आप पर यह उपकार किया है, उसी प्रकार एक समय इन्होंने हमारे पिताजी को भी जीवन दान दिया
था। वास्तव में यह बड़े सज्जन और परोपकारी जीव है।" . इसके बाद उस देव ने मुझ से कहा- "हे गुरुदेव! कहिये अब मैं आप
की क्या सेवा करूँ? आप जो आज्ञा दें, वह मैं शिरोधार्य करने को तैयार
___ मैंने कहा-“इस समय मुझे कुछ भी नहीं कहना है। जब मुझे आवश्यकता होगी, मैं तुम्हें याद करूंगा। उस समय तुम मुझे यथेष्ट सहायता कर सकते हो।
मेरी यह बात सुनकर वह देव तो अपने वासस्थान को चला गया। इधर वे दोनों विद्याधर मुझे अपने नगर (शिवमन्दिर) में ले गये। वहां पर उन विद्याधरों ने उनकी माता ने उनके बन्धुओं ने तथा अन्यान्य विद्याधरों ने, मेरा बड़ा ही सम्मान किया। जब मैं वहां से चलने को तैयार हुआ, तब उन्होंने मुझे गन्धर्वसेना को दिखाकर कहा-“हमारे पिताजी ने दीक्षा लेते समय हमसे कहा था, कि एक ज्ञानी के कथानानुसार गन्धर्वसेना को वसुदेव कुमार संगीत कला में पराजित करेंगे, और उन्हीं के साथ इसका विवाह होगा। वसुदेव कुमार भूमिचर हैं, इसलिए मेरे परम बन्धु चारुदत्त के यहां तुम इस कन्या को