SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 79 मुनिराज की वन्दना की। यह वन्दन विपर्यय देखकर उन दोनों विद्याधरों ने उस देव से इसका कारण पूछा। उत्तर में उसने कहा कि यह चारुदत्त मेरे धर्माचार्य हैं। विद्याधरों ने चकित होकर पूछा- “क्या ? यह आप के धर्माचार्य हैं ? यह कैसे हुआ?" __उस देव ने कहा-“काशी नगरी में वेद को जानने वाली सुभद्र और सुलसा नामक दो बहिने रहती थी। वे परिव्राजिकाएं थी और उन्होंने शास्त्रार्थ में अनेक विद्वानों पर विजय प्राप्त की थी। एक दिन याज्ञवल्क्य नामक एक परम विद्वान तपस्वी उनके वासस्थान में आ पहुँचे। सुभद्र और सुलसा ने उनमें भी शास्त्रार्थ किया. किन्तु उसमें उन दोनों की पराजय हई, इसलिए अपनी प्रतिज्ञानुसार वे दोनों उनकी दासी बन गयी। इनमें से सुलसा अभी युवती थी। उधर याज्ञवल्क्य भी युवक थे। इसलिए नित्य के समागम से उन दोनों के हृदय में विकार उत्पन्न हो गया और वे पति पत्नि की भांति दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने लगे। इससे सुलसा शीघ्र ही गर्भवती हो गयी। गर्भकाल पूर्ण होने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया।" ___ संसार में पाप करना जितना सहज होता है, उतना उसे छिपाना सहज नहीं होता। बच्चा हो जाने पर सुलसा और याज्ञवल्क्य लोकनिन्दा के भय से कांप उठे। उन्हें जल्दी में कुछ भी सूझ न पड़ा, इसलिए वे उस बालक को एक पीपल के नीचे छोड़कर भाग गये। इधर कुछ ही समय के बाद सुलसा की बड़ी बहिन सुभद्रा ने उस बालक को पीपल के नीचे देखा। देखते ही वह उसे अपने वासस्थान में उठा लायी और पुत्रवत् उसका लालन पालन कर से वेदादिक पढ़ाने लगी। जिस समय सुभद्रा उस बालक को उठा रही थी, उस समय वह बालक अपने मुँह में गिरा हुआ पीपल का एक फल खा रहा था। इसीलिये सुभद्रा ने उसका नाम पिप्पलाद रक्खा। पिप्पलाद जब बड़ा हुआ, तो वह परम बुद्धिमान और बड़ा ही विद्वान निकला। उस की कीर्ति सुनकर सुलसा और याज्ञवल्क्य उसे देखने आये। पिप्पलाद ने उनसे शास्त्रार्थ कर उसे पराजित कर दिया। पश्चात् सुभद्रा द्वारा जब उसे मालूम हुआ, कि यही मेरे असली माता पिता है और उन्होंने जन्मते ही मुझे त्याग दिया था, तब उसे उन पर बड़ा ही क्रोध आया। उसने मातृमेध
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy