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________________ श्री नेमिनाथ - चरित 77 कहा " इन बेचारों ने हमलोगों को कठिन मार्ग पार करने में अमूल्य सहायता दी है। मुझे तो यह बन्धु समान प्रिय मालूम होते हैं। क्या इन्हें मारना उचित होगा ? " मेरी यह बात सुनकर रुद्रदत्त को क्रोध आ गया। उसने मुझे झिड़क कर कहा - "इन्हें मारे बिना हम लोग आगे नहीं बढ़ सकते। उस हालत में हमें यहीं प्राण दे देना होगा। मैं इसके लिए तैयार नहीं हूँ। अपना प्राण बचाने के लिए इनका प्राण लेना ही होगा !" इतना कह उसने अपने बकरे को उसी क्षण मार डाला। उसकी वह अवस्था देखकर मेरा बकरा दीन और कातर दृष्टि से मेरी और ताकने लगा । मैंने उससे कहा—“मैं तेरी रक्षा करने में असमर्थ हूँ इसलिए मुझे बड़ा दुःख है, लेकिन जैन धर्म तेरा सहायक हो सकता है। तूं उसी की शरण स्वीकार कर ! संकट के समय धर्म ही बन्धु, धर्म ही माता और धर्म ही पिता होता है । " मेरी यह बात सुन, उस बकरे ने शिर झुकाकर जैन धर्म स्वीकार किया । मैंने उसे . नवकार मन्त्र सुनाया और वह उसने बड़ी शान्ति से सुना । इतने में रुद्रदत्त ने उसे भी मार डाला। मरकर वह तो देवलोक गया और हम लोग एक एक छुरी हाथ में लेकर उनकी खाल में छिप रहे । उसी समय दो भारण्ड पक्षी आ पहुँचे और हमें चंगुल में पकड़ कर एक और को ले उड़े। मार्ग में, जो भारण्ड पक्षी मुझे लिये जा रहा था, उस पर एक दूसरे भारण्ड ने आक्रमण कर दिया। शायद वह भूखा था इसलिए उस भारण्ड से वह मुझे छीन लेना चाहता था । दोनों की छीना झपटी में मैं छुरी से उस खाल को चीर कर बन्धन मुक्त हुआ और सरोवर में गिर गया फिर उसमें से बाहर निकल कर एक तरफ चल पड़ा। एक पर्वत कुछ दूर आगे बढ़ने पर मुझे एक जंगल मिला। उस जंगल में था। कौतूहल वश मैं उसके ऊपर चढ़ गया। वहां पर कार्योत्सर्ग करते हुए एक मुनिराज मुझे दिखायी दिये। मैं उन्हें वन्दन कर उनके पास बैठ गया । उन्होंने मुझे धर्मोपदेश देने के बाद पूछा - " हे चारुदत्त ! आप इस विषय भूमि में किस प्रकार आ पहुँचे ? यहां देवता और विद्याधरों के सिवा दूसरों के लिए
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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