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________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 75 उसकी यह बात.सुनकर मैंने वह कमण्डल उसे दे दिया और उसने उसमें रस भरकर उसे मेरी मचिया के नीचे लटका दिया। रस मिलते ही मैंने रस्सी हिला दी और उस त्रिदण्डी ने मुझे ऊपर खींचना आरम्भ कर दिया। अब मैं उस क्रूप के मुख के पास आ पहुँचा तब त्रिदण्डी ने खीचना बन्द कर, मुझसे पहले वह रस दे देने को कहा। मैंने कहा-“भगवन् ! पहले मुझे बाहर निकालिये रस.मचिया के नीचे बँधा हुआ है।" त्रिदण्डी ने मेरी इस बात पर ध्यान न दिया। यह बार-बार रस दे देने का आग्रह करता था। इससे मैं समझ गया कि वह केवल रस का भूखा है। रस मिल जाने पर वह मुझे धोखा देकर इसी कुएं में छोड़ देगा और आप यहाँ से चलता बनेगा। निदान जब मैंने उसे रस का कमण्डल न दिया, तो उसने वह रस्सी छोड़ दी और मैं उस मचिया तथा रस्सी के साथ उस कुएँ में जा गिरा। ___ परन्तु आनन्द की बात इतनी ही थी कि, मैं उस रस में गिरकर उसके चारों और बँधी हुई कुएँ की वेदिका पर गिरा था। कूप स्थित मेरे उस अकारण बन्धु ने मेरी यह अवस्था देख, मुझे सान्त्वना देते हुए कहा-“हे मित्र! तुम्हें खेद करने की जरूरत नहीं, क्योंकि सौभाग्यवश तुम रस में न गिरकर कूएँ की वेदिकां पर गिरे हो। खैर, इस रस को पीने के लिए एक गोह इस कुएँ में आया करती है। तुम उसकी प्रतीक्षा करो। जब वह यहां आये तब तुम उसकी पूछ पकड़ लेना। इस प्रकार तुम अनायास इस कुएँ से बाहर निकल जाओगे। यदि मेरे पैर गल न गये होते तो मैंने भी अपने उद्धार के लिए इसी उपाय से काम लिया होता।" उसकी यह बात सुनकर मुझे बहुत ही सन्तोष हुआ और मैं कई दिन तक उस कुएँ में पड़ा रहा। एक दिन मैंने मित्र को अंतिम आराधना करवायी और मेरे सामने ही उस की मृत्यु हो गयी। अब मुझे कोई सान्त्वना देने वाला भी न रहा। इतने में एक दिन मुझे एक प्रकार का भयंकर शब्द सुनायी दिया। उसे सुनकर मैं बहुत डर गया, किन्तु फिर मुझे खयाल आया कि शायद वही गोह आ रही होगी। मेरा यह अनुमान सत्य निकला। शीघ्र ही वहां एक गोह ने आकर उस रस का पान किया। इसके बाद ज्यों ही वह बाहर निकलने लगी, त्यों ही मैंने उसकी पूंछ पकड़ ली और मैं घसीटता घसीटता बाहर तो निकल
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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