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________________ 74* कंस का जन्म लिए अन्न और सोने के लिए स्थान दिया। मैं उसी के यहां रहकर अपना सारा समय उसी की सेवा में बिताने लगा। एक दिन उस त्रिदण्डी ने कहा-“हे वत्स! मालूम होता है. कि तुम धनार्थी हो-तुम्हें धन की अत्यन्त आवश्यकता है। यदि यह बात ठीक हो, तो तुम मेरे साथ एक पर्वत पर चलो। मैं वहाँ पर तुम्हें एक ऐसा रस दूंगा, जिससे तुम जितना चाहो, उतना सोना बना सकोगे।" - धन की आवश्यकता तो मुझे थी ही, इसलिए मैं उसी समय उसके साथ चल पड़ा। एक भयंकर जंगल के रास्ते हमलोग उस पर्वत पर पहुंचे। उसके मध्य भाग में दुर्गपाताल नामक एक भयानक गुफा थी। उस गुफा का द्वार एक बड़े भारी पत्थर से बन्द था। त्रिदण्डी ने मन्त्र बल से उसे खोलकर उसमें प्रवेश किया। मैं भी उसके साथ ही था। इधर उधर भटकने के बाद हम लोग उस कूप के पास जा पहँचे, जिसमें वह सोना बनाने वाला रस भरा था। वह कूप चार हाथ चौड़ा काफी गहरा और देखने में बहुत ही भयंकर था। वहां पहुँचने पर त्रिदण्डी ने मुझसे कहा-“तुम इस कूप में उतर कर इस कमण्डल में रस भर लाओ! नीचे से ज्योंही हिलाओगे, त्यों ही मैं तुम्हें ऊपर खींच लूँगा।" त्रिदण्डी के आदेशानुसार मैं एक मंचिया पर बैठ, उस कुएँ में उतरने लगा। त्रिदण्डी ने ऊपर से उसकी रस्सी पकड़ रक्खी थी। बीस पचीस हाथ नीचे जाने पर मुझे चमकता हुआ रस दिखायी दिया, नवकार मंत्र बोलकर मैं ज्यों ही वह रस कमण्डल में भरने को तैयार हुआ, त्यों ही किसी ने मुझे वैसा करने से मना किया। मैंने कहा-“भाई! तुम मना क्यों करते हो? मैं चारुदत्त नामक वणिक हूँ और त्रिदण्डी स्वामी के आदेश से यह रस लेने यहां आया हूँ।" उस आदमी ने कहा-“भाई! मैं भी तुम्हारी ही तरह धन का लोभी एक वणिक हूं और वह त्रिदण्डी ही मुझे यहां लाया था। इस कुएं में उतारने के बाद वह पापी मुझे यहीं छोड़ कर चला गया। यह रस बड़ा तेज है। यदि तुम इसमें उतरोगे तो तुम्हारी भी यही अवस्था होगी। यदि तुम रस लिये बिना वापस नहीं जाना चाहते, तो अपना कमण्डल मुझे दो, मैं उसमें रस भर दूंगा।"
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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