________________
श्री नेमिनाथ-चरित * 73 दिया। मैं इससे निराश-न हुआ और अकेला ही घोड़े पर बैठ पश्चिम की ओर आगे बढ़ा। दुर्भाग्यवश रास्ते में मेरा वह घोड़ा भी मर गया। अब पैदल चलने के सिवा कोई दूसरा उपाय न था। इसलिए कुछ दिनों के बाद मैं धीरे धीरे चलकर प्रियंगुपुर नामक एक नगर में जा पहुंचा।
प्रियंगुपुर में वणिकों की अच्छी बसती थी, वे तरह तरह का व्यवसाय करते थे। वहाँ सुरेन्द्रदत्त नामक मेरे पिता का एक मित्र भी रहता था। मैंने उसीके यहां जाकर आश्रय ग्रहण किया। वह मेरी दुरावस्था देखकर बहुत ही दु:खी हुआ। समुचित स्वागत सत्कार करने के बाद उसने मुझे वहीं व्यवसाय करने की सलाह दी। मैंने उसकी आर्थिक सहायता से उसकी इच्छानुसार कार्य शुरू किया और थोड़े ही दिन में सब खर्च बाद देकर मुझे लाख रुपये का मुनाफा हुआ।
. . यह रुपये हाथ में आने पर मुझे किराना लेकर समुद्र यात्रा करने की सूझी। सुरेन्द्र को यह बात पसन्द न आयी और उसने मुझे मना किया, किन्तु मैंने उसकी एक न सुनी। शीघ्र ही मैंने किराने से एक जहाज भरकर समुद्रमार्ग द्वारा विदेश के लिए प्रस्थान कर दिया। कुछ दिनों के बाद मैं यमुना नामक द्वीप में जा पहुँचा। उस द्वीप के कई नगरों में घूम घूम कर मैंने वह किराना बेच दिया। इसमें मुझे बहुत अधिक लाभ हुआ। थोड़े दिन इसी तरह उलट फेर करने पर मेरे पास आठ करोड़ रुपये इकट्ठे हो गये। यह कोई साधारण रकम न थी। मैंने सोचा कि अब अपने देश को चलना चाहिए और वहीं कोई व्यवसाय कर जीवन के शेष दिन शान्तिपूर्वक व्यतीत करने चाहिए। ___ यह विचार कर मैंने स्वदेश के लिए प्रस्थान किया, परन्तु देवदुर्विपाक . से मार्ग में मेरा जहाज टूट गया। इससे न केवल मेरा वह धन ही नष्ट हो गया, बल्कि मेरी जान के भी लाले पड़ गये। खैर, अभी जिन्दगी बाकी थी, इसलिए लकड़ी का एक तख्ता मेरे हाथ लग गया और मैं उसी के सहारे तैरता हुआ सात दिन में उदम्बरावतीवेल नामक स्थान में किनारे आ लगा।
उदम्बरावतीवेल से मैं किसी तरह राजपुर नगर में गया वहां नगर के . बाहर एक आश्रम में मुझे दिनकरप्रभ नामक एक त्रिदण्डीस्वामी के दर्शन हुए। उसे मैंने अपना सारा हाल कह सुनाया। उसने मुझ पर दया कर मुझे खाने के