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72 * कंस का जन्म उपकार नहीं किया। तुम्हें ऐसी अवस्था में सहायता करना मैंने अपना कर्तव्य समझा। मैं तुम्हारे दर्शन से ही अपने को कृतकृत्य मानता हूँ।" - मेरे यह वचन सुनकर वह विद्याधर अपने वासस्थान को चला गया और मैं इस घटना पर विचार करता हुआ अपने घर लौट आया।
यह उस समय की बात है, जिस समय मैं किशोरावस्था अतिक्रमण कर रहा था। धीरे-धीरे जब मैंने यौवन की सीमा में पदार्पण किया, तब मेरे पिता ने मेरे सर्वार्थ नामक मामा की मित्रवती नामक कन्या से मेरा विवाह कर दिया। परन्तु उन दिनों मैं कलाओं के पीछे पागल हो रहा था, इसलिये मैंने अपनी उस पत्नी की और आंख उठाकर देखा भी नहीं। मेरी यह अवस्था देखकर मेरे पिता ने मेरे लिये ललित गोष्ठी का प्रबन्ध कर दिया। उन्होंने सोचा होगा कि इस से मेरी कामुकता बढ़ेगी और मेरा ध्यान अपनी स्त्री की और आकर्षित होगा।
परन्तु उनके इस कार्य का फल उनकी इच्छानुसार न हुआ। मैं अपने प्यारे मित्रों के साथ बगीचों की सैर करने लगा और अन्त में कलिसेना नामक वेश्या की पुत्री वसन्तसेना के प्रेमजाल में उलझ गया। मैं उसके पीछे बारह वर्ष तक पागल रहा। मैं रात दिन वहीं रहता और वही खाता पीता। मैंने सब मिलाकर उसे सोलह करोड़ रुपये खिलाये। इसके बाद जब मैं उसे अधिक धन देने में असमर्थ हो गया, तब उसने मुझे अपने घर से निकाल दिया। लाचार, होकर मुझे फिर अपने घर आना पड़ा। . __घर आने पर मुझे मालूम हुआ कि मेरे माता पिता का देहान्त हो गया है। घर की सारी सम्पदा तो मैंने पहले ही नष्ट कर दी थी। केवल मेरी स्त्री के पास कुछ आभूषण थे। उन्हें लेकर मैं व्यापार निमित्त अपने मामा के साथ उशीरवर्ति नगर की ओर चल पड़ा। वहां मैंने उन आभूषणों से कपास खरीद ली, क्योंकि उसमें मुझे अच्छा मुनाफा होने की उम्मीद थी।
यह कपास लेकर मैंने अपने मामा के साथ ताम्रलिप्ति नगर की ओर प्रस्थान किया। परन्तु मार्ग में मेरी कपास में आग लग जाने से वह देखते ही देखते खाक हो गयी। अब मेरे पास कोई ऐसा धन भी न था, जिससे मैं कोई व्यापार कर सकूँ। मेरे मामा ने भी मुझे अभागा समझ कर मेरा साथ छोड़