________________
श्री नेमिनाथ-चरित * 71 विद्याधर जकड़ा हुआ था। मैंने देखा कि उसके हाथ पैरों में लोहे की कांटियाँ जड़ दी गयी हैं, इसलिए मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गया। इधर-उधर खोज करने पर उसकी तलवार के म्यान में मुझे तीन औषधियां दिखायी दी। उनमें से एक
औषधि का प्रयोग कर मैंने उसे बन्धन मुक्त किया। दूसरी औषधि लगाने से उस के जख्म अच्छे हो गये और तीसरी औषधि देने पर वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। उसे स्वस्थ देखकर मैंने पूछा,—“हे युवक ! तुम कौन हो और तुम्हारी यह अवस्था किसने की?"
युवक ने अपना परिचय देते हुए कहा,–“हे भद्र! वैताढय पर्वत पर शिवमन्दिर नामक एक नगर है। उसमें महेन्द्र विक्रम नामक राजा राज करते हैं। उन्हींका मैं पुत्र हूं। मेरा नाम अमितगति है। एक दिन धूमशिख और गौरमुण्ड नामक दो मित्रों के साथ क्रिड़ा करता हुआ मैं हिमन्त पर्वत पर जा पहुँचा। वहां पर मैंने अपने मामा हिरण्यदोम तपस्वी की सुकुमालिका नामक रमणीय कुमारी को देखा। उसे देखकर मैं उस पर मोहित हो गया और चुपचाप अपने वासस्थान को लौट गया। परन्तु मेरी हालात उसी दिन से खराब होने लगी। न मुझे भोजन अच्छा लगता था, न रात में नींद ही आती थी। मेरे एक मित्र द्वारा मेरे पिता को यह हाल मालूम होने पर उन्होंने उस कुमारिका को बुलाकर उससे मेरा व्याह कर दिया। फलत: मैं उसके साथ आनन्दपूर्वक अपने दिन व्यतीत करने लगा।
कुछ दिनों के बाद मुझे मालूम हुआ कि मेरा मित्र धूमशिख मेरी स्त्री को कुदृष्टि से देखता है और भी कई बातों से मुझे विश्वास हो गया कि वह उस पर आसक्त है किन्तु इसके लिए मैंने न तो उसे उलाहना दिया, न मैंने उसको अपने यहां आना जाना ही बन्द करवाया। मेरी इस सज्जनता का फल आज मुझे यह मिला, कि वह हमारे साथ यहां घूमने आया और मुझे इस वृक्ष से जकड़ कर मेरी प्रियतमा को उठा ले गया। खैर, अब जो कुछ होगा, देखा जायगा। इस समय तो आपने मुझ पर उपकार कर मेरा प्राण बचाया है, इसलिए बतलाइए कि मैं आपकी क्या सेवा करूं? आपके इस उपकार का क्या बदला दूं? . मैंने कहा- "हे अमितगति! मैंने किसी बदले की आशा से यह