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________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 65 अपनी धारणानुसार, मेरा दोष हो या न हो, किन्तु गुरुजन और नगरवासियों से मेरी यही प्रार्थना है, कि वे मेरा अपराध क्षमा करें और मुझे भूल जायें।" __इतनी कारवाई करने के बाद वसुदेव ब्राह्मण का वेश धारणकर वहां से एक और चल पड़े। मार्ग में उन्हें एक रथ मिला। उसमें कोई स्त्री बैठकर अपने मायके जा रही थी। उसने वसुदेव को देखकर अपने आदमियों से कहा"मालूम होता है कि यह प्रवासी ब्राह्मण थक गया है। इसे अपने रथ में बैठा लो!" उसके यह वचन सुनकर उसके आदमियों ने वसुदेव को रथ पर बैठा लिया। इससे वसुदेव अनायास एक नगर में पहुँच गये। वहां भोजन और स्नानादि से निवृत हो, वे एक यक्ष के मन्दिर में चले गये और वहीं उन्होंने सुख पूर्वक वह रात्रि व्यतीत की। ___ इधर शौर्यपुर में चारों और यह बात फैल गयी कि, वसुदेव ने अग्नि प्रवेश कर अपना प्राण दे दिया है। यादवों को इस घटना से बहुत ही दु:ख हुआ किन्तु इसे दैवेच्छा मानकर उन्होंने वसुदेव की उत्तर क्रिया कर दी। वसुदेव यह समाचार सुनकर निश्चिन्त हो गये। उन्हें विश्वास हो गया कि अब कोई उनकी खोज न करेगा। दो एक दिन के बाद वे उस नगर से विजयखेट नामक नगर को चले गये। विजयखेट के राजा का नाम सुग्रीव था। उसके श्यामा और विजयसेना नामक दो कन्याएँ थी। वसुदेव ने कलाकौशल में उन्हें पराजित कर उनसे विवाह कर लिया। विवाह के बाद वे बहुत दिन तक ससुराल में मौज करते रहे। इसी समय विजयसेना के उदर से उन्हें अक्रूर नामक एक पुत्र भी हुआ। वह बहुत ही रूपवान् बालक था। कुछ दिन उसकी भी बालक्रीड़ा देखने के बाद वसुदेव ने वहां से दूसरे नगर के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में वसुदेव को एक बड़ा भारी जंगल मिला। वहां उन्हें प्यास लगी। इसलिए वे जल की तलाश करते हुए जलावर्त नामक एक सरोवर के तट पर जा पहुँचे। उस समय एक जंगली हाथी ने उन पर आक्रमण कर दिया, किन्तु वसुदेव ने अविचलित होकर मृगेन्द्र की भांति उससे युद्ध कर उस पर विजय प्राप्त की। इसके बाद मौका मिलते ही वे उस पर सवार हो गये। इसी समय कहीं से अर्चिमाली और पवनंजय नामक विद्याधर उधर आ निकले। वे
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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