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श्री नेमिनाथ - चरित 63
जरासन्ध ने समुद्रविजय को भी खूब सम्मानित किया । वह जरासन्ध का आतिथ्य ग्रहण कर अपने नगर को लौट गया। इस विजय से वसुदेव की अच्छी ख्याति हो गयी। अब वह शौर्यपुर में जब जब घूमने निकलता, तब तब नगर की ललनाऐं सब काम छोड़कर उसे देखने के लिए दौड़ पड़ती और उसका अलौकिक रूप देखकर उस पर मुग्ध हो जाती । मन ही मन अपना तनमन उस पर न्यौछावर कर देती। कुछ दिनों के बाद चारों और इसके लिए कानाफूसी होने लगी । एक दिन नगर के महाजनों ने आकर राजा से एकान्त में कहा—“हे स्वामिन्! वसुदेव का रूप देखकर नगर की बहु बेटियों ने मान मर्यादा छोड़ दी है। जो स्त्री उसे एकबार देख लेती है, वह मानों उसके वश हो है । फिर किसी काम में उसका जी नहीं लगता और वह उसी के पीछे पागल हो जाती है। "
महाजनों के यह वचन सुनकर राजा ने कहा – “हे महाजनों! आप लोग धैर्य धारण करे। मैं शीघ्र ही इसका कोई उपाय करूँगा ।'
इस प्रकार महाजनों को सान्त्वा देकर राजा ने उन्हें विदाकर दिया और वसुदेव से इस बात का जिक्र तक न किया। कुछ दिनों के बाद एकदिन जब वसुदेव उन्हें प्रणाम करने आया तो उन्होंने बड़े प्रेम से उसे अपने पास बैठाकर कहा—“प्रिय भाई! आजकल तुम्हारा शरीर बहुत ही दुर्बल हो गया है ? मैं समझता हूँ कि तुम सारा दिन नगर में घूमा करते हो, इसलिए ऐसा हुआ है। तुम अपना सारा समय राजमहल और राजसभा में ही बिताया करो तो अच्छा हो। मैं कुछ ऐसे कलाविद् मनुष्यों को प्रबन्ध कर दूँगा, जो तुम्हें कला की शिक्षा भी देंगे और अवकाश के समय तुम्हारा मनोरंजन भी करेंगे ।"
वसुदेव बहुत ही नम्र और विवेकी था । उसने तुरन्त यह बात मान ली और दूसरे दिन से संगीत, नृत्य और विद्या- कला की चर्चा में अपना समय बिताने लगा। अपनी सरलता के कारण वह बिल्कुल न समझ सका, कि उस पर यह प्रतिबन्ध क्यों लगाया गया है।
परन्तु यह रहस्य अधिक दिनों तक छिपा न रह सका। महल के कई दास दासियों को महाजनों की शिकायत का हाल मालूम था और उन्हीं से इस भेद का भंडाफोड़ हो गया। बात यह हुई कि एक दिन एक कुब्जा दासी
गुप्त