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श्री नेमिनाथ - चरित 61
सिंहरथ का रथ चूर चूर कर डाला । सिंहरथ ने भी कंस को मारने के लिए तलवार खींच ली, किन्तु उसी समय वसुदेव ने एक ऐसा भाला मारा कि वह तलवार तुरन्त मूठ से अलग हो गयी। अब सिंहरथ को बन्दी बनाना सहज हो गया। कंस ने छल और बल द्वारा उसे पकड़कर तुरन्त उसके हाथ पैर बांध दिये और उसे उठाकर वसुदेव के रथ में डाल दिया । सिंहरथ की यह अवस्था होते ही उसकी सेना भी भाग खड़ी हुई । वसुदेव और कंस विजय का डंका बजाते हुए सिंहरथ के साथ अपने नगर को लौट आये।
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राजा समुद्रविजय अपने भाई का यह पराक्रम देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए । किन्तु उन्होंने वसुदेव को एकान्त में बुलाकर कहा कि – “कोष्टुकि नामक एक निमित्त ज्ञानी ने मुझ से कहा है कि जरासन्ध ने सिंहरथ को बन्दी बनाने वाले से अपनी कन्या का विवाह कर देना घोषित किया है, परन्तु उसके लक्षण अच्छे नहीं है। यह पति और पिता दोनों कुलों का क्षय करेगी। इसलिए यदि जरासन्ध तुम से उसका विवाह करना चाहे, तो तुम वह भूलकर भी स्वीकार न करना । "
भाई के यह वचन सुनकर वसुदेव कहा - ' - " सिंहरथ का बन्दी बनाने का श्रेय वास्तव में कंस को ही है, इसलिए जीवयशा से उसी का ब्याह करा . देना चाहिए जरासन्ध दहेज में जो वस्तु दे वह भी उसी को दे देना चाहिए ।"
वसुदेव का यह विचार राजा को पसन्द आ गया, परन्तु उन्होंने कहा कि Taa है, इसलिए जरासन्ध उससे अपनी कन्या का विवाह
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न करेगा।
वसुदेव ने कहा - " आप का कहना ठीक है, परन्तु मुझे तो कंस वणिक प्रतीत नहीं होता। अपने कार्यों से तो वह क्षत्रिय ही मालूम होता है । " अंत में राजा ने उसके पालक पिता को बुलाकर उससे कंस का पूछा। उसने कंस के सामने ही सब सच्चा हाल कह सुनाया और प्रमाण स्वरूप वह दो मुद्रिकाएं तथा पत्र भी लाकर राजा को दिखाया। उस पत्र में कंस के जन्म का सब हाल लिखा हुआ था । उसे पढ़कर सबको विश्वास हो गया कि कंस वणिक नही, बल्कि यदुवंशी राजा उग्रसेन का पुत्र है।