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60 * कंस का जन्म भेजा कि वैताढय पर्वत के पास सिंहपुर नगर में सिंहस्थ नामक एक राजा राज करता है। वह बड़ा अभिमानी है, इसलिये जो कोई उसे बन्दी बना कर यहां ले आयगा उसे मैं अपनी जीवयशा नामक पुत्री और एक अच्छा सा नग़र जागीर में दूंगा।
जरासन्ध का आदेश अमान्य करना कोई सहज काम न था, इसलिए दूत के मुख से यह सन्देश सुनते ही समुद्रविजय की राज सभा में खलबली मच गयी। सिंहस्थ को बन्दी बनाना उतना ही कठिन था, जितना एक जहरीले सांप को वश करना। फिर भी वसुदेव ने इसका बीड़ा उठाकर अपने बड़े भाई से सिंहपुर जाने की आज्ञा मांगी। समुद्रविजय ने कहा- “हे भाई! तुम अभी. सुकुमार हो। रणक्षेत्र अभी तुम ने आँखों से भी नहीं देखा। वहां तो खून की नदी बहानी पड़ेगी। ऐसी अवस्था में तुम्हारा वहां जाना उचित नहीं।"
परन्तु वसुदेव को तो अपना बाहुबल और रणकौशल दिखाने का हौंसला था, इसलिए उसने वारंवार बड़े भाई से आग्रह पूर्वक अनुरोध किया। उसके इस उत्साह के सामने अन्त में समुद्र विजय को झुकना ही पड़ा। उन्होंने एक बहुत बड़ी सेना के साथ उसे प्रस्थान करने की आज्ञा दे दी। बस, फिर क्या था, रणभेरी बज उठी और कंस के साथ वसुदेव सिंहपुर की ओर चल
पड़े।
थोड़ी ही दिनों में यह सब दल सिंहपुर जा पहुँचा। शत्रुसेना के आगमन का समाचार मिलते ही राजा सिंहरथ भी सिंह की भांति सिंहपुर से बाहर निकल आया। वहां दोनों दलों में घमासान युद्ध हुआ। सिंहस्थ की सेना वसुदेव की सेना से अधिक बलवान थी, इसलिए थोड़ी ही देर में वसुदेव की सेना के पैर उखड़ गये। वसुदेव ने रंग बदलते देखकर कंस को अपना सारथी बना कर बड़े जोर से युद्ध करना आरम्भ किया। सिंहरथ ने भी दृढ़तापूर्वक उठकर उससे लोहा लिया। दोनों एक दूसरे से बढ़कर बलवान थे, इसलिए इस युद्ध में विजय लक्ष्मी किस को वरण करेगी, यह कहना कठिन हो गया।
परन्तु कंस की नसों में भी क्षत्रिय का खून जोश मार रहा था। वसुदेव का सारथी बनकर केवल रथ हांकना और युद्ध में भाग न लेना वह भला कब पसन्द कर सकता था? मौका मिलते ही रथ से कूदकर एक मुदगर द्वारा उसने