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58 * कंस का जन्म
की। इसके बाद उन्होंने फिर पारणे के दिन अपने यहां भोजन करने के लिए उस तापस को निमन्त्रण दिया, किन्तु इस बार निमन्त्रण की बात सुनकर तापस को उस पर क्रोध आ गया। उसने निमन्त्रण अस्वीकारकर यह नियाणा किया है—“इस तप के प्रभाव से जन्मान्तर में मेरे ही हाथों से इसकी मृत्यु हो!
इसके बाद अनशन कर उस तापस ने प्राण त्याग दिया और राजा उग्रसेन के यहां रानी धारिणी के उदर से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। गर्भकाल में गर्भ के प्रभाव से रानी धारिणी को अपने पति का मांस खाने की इच्छा उत्पन्न हुई, परन्तु यह दोहद ऐसा था, जिसे प्रकट करना भी कठिन था। निदान, दिन प्रतिदिन उसका शरीर क्षीण होने लगा। उसकी यह अवस्था देखकर राजा उग्रसेन ने जब उससे अत्यन्त आग्रह पूर्वक पूछताछ की, तब उसने उन्हें अपने इस दोहद का हाल कह सुनाया।
राजा उग्रसेन उसे सुनकर बड़ी चिन्ता में पड़ गये। उन्होंने यह समाचार अपने मन्त्रियों से कहा। मन्त्रियों ने इसके लिए एक उपाय सोच निकाला। उन्होंने राजा को अंधेरे में बिठाकर उनके पेट पर खरगोश का मांस बांध दिया,
और बाद में वही मांस रानी के सामने काट-काटकर उसको खाने के लिए दिया गया। यह मांस खाने से जब रानी का दोहद पूर्ण हो गया तब वह अपने मूल स्वभाव में आ गयी और पश्चात्ताप करती हुई कहने लगी कि-"हे देव! मैंने यह क्या किया? पति के बिना मेरा जीवन ही व्यर्थ है। उनके बिना यह गर्भ भी बेकार है। अब मैं अवश्य ही अपना प्राण दे, दूंगी।"
इतना कह रानी धारिणी ने चिता रूढ़ हो प्राण त्याग करने की तैयार की. किन्तु इसी समय मन्त्रियों ने उसके पास आकर कहा-“हे रानी जी! आप धैर्य धारण करें। हम सात दिन मैं किसी-न-किसी तरह महाराज को स्वस्थ कर आप को दिखा देंगे।"
मन्त्रियों की इस सान्त्वना से रानी ठहर गयी। सातवें दिन उन्होंने अपने वचनानुसार राजा उग्रसेन ने उसकी भेंट करा दी। राजा को जीवित देखकर उसे बहुत ही आनन्द हुआ और उसने इसी उपलक्ष में एक उत्सव भी मनाया। __इसके बाद गर्भकाल पूर्ण होने पर पौष कृष्ण चतुर्दशी को चन्द्र के.मूल नक्षत्र में रात्रि के समय रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु गर्भकाल के