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________________ 56 * हरिवंश और नवाँ जन्म उनकी जो प्रशंसा सुनी थी, वह उन्हें कह सुनायी। अन्त में उसने नन्दिषेण मुनि के निकट क्षमा प्रार्थना करते हुए कहा-“हे मुनिराज! आप मेरा अपराध क्षमा कीजिए और बतलाइए कि आप मुझसे क्या चाहते हैं? आप जो चाहें वह मैं आपको दे सकता हूँ।" ____ मुनि ने उत्तर दिया-“हे देव! संसार में धर्म ही परम दुर्लभ है, किन्तु मैं उसे प्राप्त कर चुका हूँ। धर्म के सिवा अब और कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसकी मैं याचना करूँ और आप मुझे दे।" . नन्दिषेण मुनि के यह वचन सुन, वह देवता अत्यन्त प्रसन्न हुआ और मन ही मन उनकी प्रशंसा कर अपने वासस्थान को चला गया। इस घटना के बाद नन्दिषेण मुनि ने बारह हजार वर्ष तक कठिन तप किया और अन्त में अनशन कर उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया। मृत्यु के समय उन्होंने यह सोचा कि इस तप के प्रभाव से दूसरे जन्म में मैं स्त्रियों का प्यारा बन सकूँ। मृत्यु के बाद वे महाशुक्र देवलोक में देवता हुए और वहां से च्युत होकर वे ही वसुदेव नामक तुम्हारे पुत्र हुए हैं। अपनी अन्तिम इच्छा के कारण उन्होंने इस जन्म में रूप, गुण और सौभाग्य प्राप्त किया है। वे अपने इन गुणों के कारण स्त्रियों का हृदय अनायास जीत सकते हैं और उनके वल्लभ बन सकते हैं। सुप्रतिष्ठ मुनि के यह वचन सुनकर राजा अन्धक वृष्णि को बहुत ही आनन्द हुआ। उन्होंने समुद्रविजय को अपना समूचा राज्यभार सौंपकर मुनिराज के निकट दीक्षा ले ली। अन्त में वे मोक्ष के अधिकारी हुए। राजा भोजवृष्णि ने भी उनका अनुकरण किया। उनके बाद उग्रसेन मथुरा का राजा और धारिणी उनकी पटरानी हुई।
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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