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श्री नेमिनाथ-चरित * 55 कर किसी तरह मुनिराज की सेवा में पहुंचा।
. परन्तु मुनिराज बना देव तो उसकी परीक्षा ले रहे थे। इसलिए वे उसे देखते ही आगबबूला हो उठे। उन्होंने क्रुद्ध होकर कहा-“मैं इस अवस्था में यहां पर पड़ा हूँ। और तूने भोजन के चक्कर में पड़कर मेरी खबर तक न ली। जब तूं शीघ्र ही नहीं आ सकता तब तूने यह व्रत क्यों ले रक्खा है? धीक्कार है, तुझे और तेरे इस वैयावच्च अभिग्रह को! क्या इसी तरह सब की वैयावच्च करता है।"
नन्दिषेण ने हाथ जोड़कर नम्रता पूर्वक कहा—'हे मुनिराज! मेरा यह अपराध क्षमा कीजिए। अब मैं आपकी सेवाशुश्रुषा में कोई कसर न रक्तूंगा। लीजिए यह शुद्ध जल ग्रहण कीजिए।
- इतना कह नन्दिषेण ने उस मायावी मुनि को जलपान कराया। जलपान कराने के बाद उसने जब मुनिराज से उठने को कहा, तब मुनिराज ने उसकी भर्त्सना करते हुए कहा:-“हे मूर्ख क्या तुझे दिखायी नहीं देता कि मैं चलने फिरने में असमर्थ हूँ।"
मायावी मुनि के यह वचन सुनकर नन्दिषेण ने उसे अपने कन्धे पर बैठा लिया। परन्तु कन्धे पर बैठ के आगे चलते समय मायावी मुनि पद पद पर उसकी भर्त्सना करने लगे। वे कहने लगे—“तूं इतनी तेजी से क्यों चलता है ? तेरी इस कठिन चाल से मेरे शरीर में धमक लगती है, फलत: मुझे कष्ट होता है। यदि तूं मेरी वैयावच्च करना चाहता है, तो धीरे धीरे चल, वर्ना मुझे यहीं पर उतार दे।" - यह सुनकर नन्दिषेण बहुत धीरे धीरे चलने लगा, परन्तु कुछ दूर आगे बढ़ते ही मायावी मुनि ने उसके शरीर पर मलत्याग कर दिया। नन्दिषेण को इससे जरा भी दु:ख न हुआ। वह पूर्ववत् उन्हें अपने कन्धे पर लिये ही लिये आगे बढ़ा और रास्ते में केवल इसी बात पर विचार करता रहा कि किस प्रकार इनकी सेवाशुश्रुषा कर इन्हें रोग मुक्त करना चाहिए।
नन्दिषेण की यह कर्त्तव्यनिष्ठा देखकर वह देवता उस पर प्रसन्न हो उठा। उसने नन्दिषेण के शरीर की विष्टा दुरकर उन पर पुष्पवृष्टि की। इसके बाद उसने तीन बार नन्दिषेण की प्रदक्षिणा कर उन्हें प्रणाम किया और इन्द्रसभा में