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________________ 54 हरिवंश और नवाँ जन्म उपवन में गया, किन्तु आत्महत्या करने के पहले ही वहाँ उसकी दृष्टि एक साधु पर जा पड़ी। उसने उनके पास जाकर उन्हें प्राणाम किया। उन मुनिराज का नाम सुस्थित था। उन्होंने अपने ज्ञान से उसकी आन्तरिक भावना समझ कर कहा – 'हे भद्र! तुम्हें आत्महत्या न करनी चाहिए। दुःख का कारण तो अधर्म है, इसलिए यदि तुम सुख चाहते हो, तो तुम्हें धर्म की आराधना करनी चाहिए। आत्महत्या करने से सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती । " मुनिराज के यह वचन सुनकर नन्दिषेण को अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हुआ और उसने आत्महत्या के विचार को जलाञ्जलि दे दी, उसने उसी समय उनके पास दीक्षा ले ली। कुछ दिनों के बाद जप तप के प्रभाव से वह गीतार्थ हो गया और उसने साधुओं की वैयावच्च - सेवा करने का अभिग्रह ग्रहण किया। नन्दिषेण अपने इस अभिग्रह के अनुसार सभी तरह के साधुओं की वैयावच्च करता था और किसी भी कारण से कभी खिन्न या विचलित न होता था। उसकी यह कर्त्तव्यनिष्ठा देखकर एक दिन इन्द्र ने अपनी सभा में मुक्तकण्ठ से उसकी प्रशंसा की, परन्तु एक देवता को उनकी बातों पर विश्वास न हुआ और उसने नन्दिषेण की परीक्षा लेने का विचार किया । निदान, वह एक म्लान साधु का वेश धारण कर रत्नपुर के बाहर पड़ा रहा और एक दूसरा देवता साधु के ही वेश में नन्दिषेण के पास पहुंचा। उस समय नन्दिषेण पारणा कर रहा था। उसने ज्यों ही पहला ग्रास उठाया त्यों ही साधु वेशधारी उस देवता ने उसे पुकार कर कहा – “हे नन्दिषेण ! तूं वैयावच्च की प्रतिज्ञा कर इस समय भोजन कैसे कर रहा है ? नगर के बाहर क्षुधा और तृषा से पीड़ित तथा अतिसार रोग से ग्रसित एक मुनिराज बैठे हुए कष्ट पा रहे हैं।" साधु के यह वचन सुनकर नन्दिषेण ने भोजन को छोड़, उसी समय मुनिराज की वैयावच्च के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में वह उनके लिए शुद्ध जल की खोज करने लगा, परन्तु उसके इस कार्य में बाधा देने के लिए वह जहां जाता वहीं का जल वह देवता अनेषणीय ( अशुद्ध ) बना देता। इससे शुद्ध जल के प्राप्त करने में उसे बड़ी कठिनाई हुई, परन्तु अन्त में उसके तपोबल के कारण उस देवता का उद्योग निष्फल प्रमाणित हुआ और वह शुद्ध जल प्राप्त
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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