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48 * सातवाँ और आठवाँ भव
इतना कह शंखकुमार मणिशेखर विद्याधर पर टूट पड़े। दोनों बड़ी देर तक घमासान युद्ध करते रहे। अन्त में जब मणिशेखर ने देखा कि वह भुजबल. से शंखकुमार को न जीत सकेगा, तब वह अपनी माया से आग के गोले आदि बनाकर उनसे युद्ध करने लगा, परन्तु पुण्य प्रभाव के कारण कुमार की कोई हानि न हुई। उसके अनेक अस्त्रों को तो उसने अपने खड्ग से ही काट डाला। इससे मणिशेखर बहुत लज्जित हुआ। इसी समय शंखकुमार ने उसका धनुष खींचकर उसकी छाती में इतने वेग से एक बाण मारा कि वह मुर्छित होकर वहीं भूमि पर गिर पड़ा।
मणिशेखर के मूर्छित हो जाने पर शंखकुमार से उसका उपचार किया और . जब वह स्वस्थ हुआ तब पुन: उसे लड़ने के लिये चुनौती दी। किन्तु मणिशेखर ने उसे हाथ जोड़ते हुए कहा-“हे कुमार! अब मैं तुमसे युद्ध करना नहीं चाहता। तुम वीर शिरोमणि हो। मनुष्य होते हुए भी तुमने मुझे विद्याधर को जीत लिया है। तुम्हारा बल देखकर मैं समझ गया हूँ कि तुम साधारण मनुष्य नहीं हो। हे वीर! यह यशोमती जिस प्रकार तुम्हारे गुणों से तुम पर मुग्ध हो रही है, उसी तरह मैं भी तुम्हारे बल से तुम पर मुग्ध हो रहा हूँ। मैंने तुमसे लड़ने में बड़ी भूल की है। अब मेरा अपराध क्षमा करो!" ___ शंखकुमार ने कहा—'हे मणिशेखर! मैं भी तुम्हारा बल और तुम्हारी नम्रता देखकर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। हे महाभाग! अब तुम जो कहो वह करने के लिए मैं तैयार हूँ।" ___मणिशेखर ने कहा- “यदि आप प्रसन्न है तो मेरे साथ वैताढय पर्वत पर चलिये। वहां पर चलने से एक तो सिद्धायतन तीर्थ की यात्रा हो जायगी, दूसरे मुझ पर भी बड़ा अनुग्रह होगा।"
शंखकुमार ने उसकी यह प्रार्थना सहर्ष स्वीकार कर ली। यशोमती को भी इससे बहुत ही आनन्द हुआ। इसी समय मणिशेखर के कुछ अनुचर वहां आ पहुँचे। उन्होंने सब वृत्तान्त सुनकर शंखकुमार को प्रणाम किया। शंखकुमार ने उन्हीं में से दो विद्याधरों को अपनी सेना के पास भेजकर उसे हस्तिनापुर जाने को आदेश दिया। वहां से लौटते समय वही विद्याधर यशोमती की उस धात्री को भी अपने साथ लेते आये, जिसे शंखकुमार आश्वासन देकर मार्ग में छोड़