SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 46 * सातवाँ और आठवाँ भव देखा कि बचने का केई उपाय नहीं है, तब अत्यन्त दीनता पूर्वक कंठ में कुठार डालकर वह शंखकुमार की शरण में आया। उसने कहा—'हे स्वामिन्!' मैं अपनी पराजय स्वीकार कर आपकी शरण में आया हूँ। अब मैं आपका दास होकर रहूँगा। आप मुझे जो चाहे सो दण्ड दे दीजिये और मेरा यह अपराध क्षमा कीजिए। पल्लीपति की यह प्रार्थना सुनकर शंखकुमार से उससे वह सब माल ले आने को कहा, जो उसने आसपास के लोगों को लूट लूटकर एकत्र किया था। पल्लीपति ने उसकी यह आज्ञा तुरन्त शिरोधार्य की। शंखकुमार ने वह संब माल उसी समय उनके असल मालिकों को लौटा दिया। इसके बाद उन्होंने उससे समुचित दण्ड वसूल कर उसे अपने साथ चलने की आज्ञा दी। यथासमय सब सेना ने विजय का डंका बजाते हुए वहां से प्रस्थान किया। ___ मार्ग में संध्या पड़ने पर सब लोगों ने एक स्थान में पड़ाव डालकर वहीं रात बिताना स्थिर किया। मध्यरात्रि के समय जब अपनी शैया में पड़े हुए शंखकुमार मधुर निद्रा का आस्वादन कर रहे थे, उस समय एक ओर से उन्हें किसी अबला का करुणा प्रधान क्रन्दन सुनायी दिया। उसे सुनकर वे तुरन्त उठ बैठे और हाथ में खड्ग लेकर उसी और चल पड़े। कुछ दूर जाने पर उन्हें एक प्रौढ़ा स्त्री दिखायी दी। शंखकुमार ने उसके पास पहुँचकर पूछा-'हे भद्रे ! तुम्हें ऐसा कौन सा दुःख है, जिसके कारण तुम इस तरह विलाप कर रही हो?". राजकुमार के इन वचनों से प्रौढ़ा को कुछ सान्तवना मिली। उसने कहा-“हे भद्र! अंगदेश में चम्पा नामक एक नगरी है। उसमें जितारि नामक राजा राज्य करता है। उसकी रानी का नाम प्रीतिमती है। उसने कई पुत्रों के बाद यशोमती नामक एक कन्या को जन्म दिया है। उसकी अवस्था अब विवाह योग्य हो चुकी है, परन्तु उसे अपने अनुरूप कोई वर नहीं दिखायी देता, इसलिए वह रातदिन दुखी रहती है। हाल ही में उसने किसी के मुख से राजा श्रीषेण के पुत्र शंखकुमार की प्रशंसा सुनी है। उसे सुनकर वह उस पर तन मन से अनुरक्त हो गयी है और उसने प्रतिज्ञा कर ली है कि मैं शंखकुमार से ही व्याह करूँगी। इस प्रतिज्ञा का हाल सुनकर उसके पिता को परम आनन्द हुआ और उसने यह सम्बन्ध ठीक करने के लिए अपने आदमियों को राजा श्रीषेण के
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy