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चौथा परिच्छेद सातवाँ और आठवाँ भव ।
इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में कुरु नामक एक देश था। उसके हस्तिनापुर नामक नगर में श्रीषेण नामक एक राजा राज्य करते थे, उनकी रानी का नाम श्रीमती था। उसने एक दिन पिछली रात में स्वप्न देखा कि मानो उसके मुख में पूर्णचन्द्र प्रवेश कर रहा है। सुबह राजा की निद्रा भंग होने पर उसने वह स्वप्न उन्हें कह सुनाया। उन्होंने उसी समय स्वप्न पाठकों को बुलाकर इस स्वप्न का फल पूछा। स्वप्न पाठकों ने कहा-“महाराज! यह स्वप्न बहुत ही उत्तम है। इसके प्रभाव से रानी को एक परम प्रतापी पुत्र होगा, जो शत्रुरूपी समस्त अन्धकार का नाश करेगा।"
, यह स्वप्न फल सुनकर राजा और रानी अत्यन्त प्रसन्न हुए। अपराजित का जीव देवलोक से च्युत होकर उस रानी के उदर में आया और गर्भकाल पूर्ण होने पर उसने यथासमय एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। राजा ने इस पुत्र का नाम शंख रक्खा। जब उसकी अवस्था कुछ बड़ी हुई, तब राजा ने उसकी शिक्षा दीक्षा का प्रबन्ध किया और उसने थोड़े ही दिनों में अनेक विद्या तथा कलाओं में पारदर्शिता प्राप्त कर ली। धीरे धीरे किशोरावस्था अतिक्रमण कर वह यौवन के कुसुमित वन में विचरण करने लगा। ___ उधर विमल बोध का जीव देवलोक से च्युत होकर राजा के मन्त्री के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ और उसका नाम मतिप्रेम गया। पूर्व सम्बन्ध के कारण शंखकुमार और उसमें बाल्यावस्था से ही मित्रता हो गयी। यह मैत्री बन्धन दिन प्रतिदिन दृढ़ होता गया और बाल्यवस्था की भांति युवावस्था में भी