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42 * पांचवां और छठा भव पुत्र को गले लगाकर उसके मस्तक पर बार-बार चुम्बन करने लगे। उनके नेत्र उसे देखकर मानो तृप्त ही न होते थे। माता ने भी पुत्र की पीठ पर हाथ फेरकर उसे आशीर्वाद दिया और विमलबोध ने उनसे उन सब का परिचय कराया। राजकुमार के साथ जो भूचर और खेचर राजा आये थे, वे कई दिन तक राजा हरिनन्दी का आतिथ्य ग्रहण करते रहे। इसके बाद उन सबको सम्मानपूर्वक विदा कर राजकुमार अपराजित अपने माता-पिता को आनन्दित करते हुए वहीं . अपने दिन निर्गमन करने लगे।
उधर मनोगति और चपलगति दोनों महेन्द्र देवलोक से च्युत होकर अपराजित के सूर और सोम नामक लघु बन्धु हुए। कुछ दिनों के बाद राजा हरिनन्दी ने समस्त राज्य-भार अपराजित को सौंपकर स्वयं दीक्षा ले ली और दीर्घकाल तक तपस्या कर अन्त में उन्होंने परमपद प्राप्त किया। इधर राजा अपराजित ने प्रीतिमती को पटरानी, विमलबोध को मन्त्री और अपने दोनों लघु बन्धुओं को माण्डलिक राजा बना दिया। वह राज्य-शासन में सदा न्याय और नीति से काम लेता था, इसलिए प्रजा का प्रेम सम्पादन करने में भी उसे देरी न लगी। इस प्रकार प्रजापालन करते हुए राजा अपराजित के दिन आनन्द से कटने लगे। उन्होंने दीर्घकाल तक शासन किया और अपने शासनकाल में अनेक जिन चैत्यों की रचना करायी तथा अनेक बार तीर्थाटन कर अपना जीवन और धन सार्थक किया।
एक दिन राजा अपराजित उद्यान की सैर करने गये। वहाँ उन्होंने एक धनीमानी सार्थवाह को देखा, जो अपने इष्ट-मित्र और स्त्रियों के साथ वहाँ क्रीड़ा करने गया था। वह उस समय याचकों को दान दे रहा था और बन्दीजन उसकी बिरुदावली गा रहे थे। उसका ठाठ-बाठ देखकर राजा अपराजित चकित हो गये। उन्होंने एक सेवक से उसका परिचय पूछा। उसने बतलाया-“महाराज! यह हमारे नगर के समुद्रपाल नामक सार्थवाह का पुत्र है। इसका नाम अनंगदेव
राजा यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा-“धन्य है मुझे, कि मेरे राज्य में ऐसे उदार और धनीमानी व्यापारी निवास करते हैं।"
अस्तु! उस दिन तो राजा अपने वासस्थान को लौट गये। किन्तु दूसरे