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श्री नेमिनाथ चरित : 41
उसके पास एक दूत भेजा। राजकुमार ने उसका स्वागत कर अपने माता-पिता का कुशल समाचार पूछा। उत्तर में दूत ने सजल नेत्रों से कहा- “हे राजकुमार वे किसी तरह जीते हैं यही कुशलता समझिए। वैसे तो वे आपके वियोग से मृतप्रायः हो रहे हैं। रात-दिन वे खिन्न और दु:खित रहते हैं। किसी काम में उनका जी नहीं लगता। आनन्द जैसी वस्तु तो मानो अब उनके जीवन में है ही नहीं। बीच-बीच में जब कभी आपके सम्बन्ध की कोई उड़ती हुई खबर उनके कानों तक पहुँच जाती है, तब वे कुछ क्षणों के लिए आनन्दित हो उठते हैं और उनका हृदय आशा से भर जाता है, परन्तु कुछ देर के बाद फिर उनकी आशानिराशा में परिणत हो जाती है और वे फिर उसी तरह निराशा हो जाते हैं। इस बार आपका विश्वसनीय पता पाकर उन्होंने आपको बुला लाने के लिए मुझे भेजा है। आप मेरे साथ शीघ्र ही चलिए और अपने माता-पिता की वियोगव्यथा दूर कर उनके जीवन को सुखी बनाइए ! "
दूत के यह वचन सुनकर राजकुमार के नेत्रों से आँसू आ गये। उन्होंने कहा- “मेरे कारण मेरे माता-पिता को जो दुःख हुआ है, उसके लिए मुझे आन्तरिक खेद है। चलो, अब मैं शीघ्र ही तुम्हारे साथ चलता हूँ ।"
इतना कह राजकुमार‘अपराजित राजा जितशत्रु के पास गये और उनसे सारा हाल निवेदन किया। राजा जितशत्रु ने उसी समय उन्हें जाने की आज्ञा दे * दी। वे उनसे विदा ग्रहण कर अपने नगर की ओर चल पड़े। इसी समय अपनी दोनों पुत्रियों के साथ विद्याधर भुवनभानु तथा भिन्न-भिन्न वे राजा भी अपनीअपनी कन्याओं के साथ वहाँ आ पहुँचे जिनके साथ राजकुमार ने ब्याह किया था। विद्याधर सुरकान्त भी कहीं से घूमता - घामता वहाँ आ पहुँचा। राजकुमार ने अपनी समस्त पत्नियों तथा भूचर और खेचर राजाओं के साथ सिंहपुर की ओर प्रस्थान किया।
शीघ्र ही यह सब दल सिंहपुर जा पहुँचा । वहाँ उनके आगमन का समाचार पहले ही पहुँच गया था, इसलिए नगर निवासियों ने उनके स्वागत के लिए बड़ी-बड़ी तैयारियाँ कर रखी थीं। जिस समय राजकुमार अपराजित अपनी पत्नियों के साथ अपने माता-पिता के सामने पहुँचे, उस समय का दृश्य बहुत ही हृदयस्पर्शी था। सबकी आँखों में आनन्दाश्रु झलक रहे थे। राजा हरिनन्दी