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36 * पांचवां और छठा भव उनसे पूछा-“हे भगवन् ! मैं भव्य हूँ या अभव्य?" ...
केवली भगवान ने कहा-“हे राजकुमार! तुम भव्य हो। पाँचवे जन्म में तुम बाईसवें तीर्थंकर होंगे और यह तुम्हारा मित्र गणधर होगा।"
केवली भगवान के यह वचन सुनकर दोनों जन बहुत ही प्रसन्न हुए। वे कई दिन तक वहाँ रहे और मुनिराज की सेवा करते रहे। इसके बाद जब मुनिराज वहाँ से विहार कर गये, तब वे भी वहाँ से चल पड़े और स्थान-स्थान - पर चैत्य-वन्दन करते हुए इधर-उधर विचरण करने लगे। .....
उधर जनानन्दपुर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करते थे। उनकी राणी का नाम धारिणी था। वह गर्भवती थी। तथासमय उसके उदर से रत्नवती ने पुत्री रूप में जन्म लिया। उसके पिता ने उसका नाम प्रीतिमती रखा। जब प्रीतिमती की अवस्था कुछ बड़ी हुई, तब उसकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध किया गया। प्रीतिमती की बुद्धि बहुत ही तीव्र थी, इसलिए अल्पकाल में ही वह अनेक विद्या और कलाओं में पारंगत हो गयी। इसके बाद क्रमश: जब उसने यौवनावस्था में पदार्पण किया, तब राजां उसकी विवाह-चिन्ता से व्याकुल हो उठे। ऐसे रूपवती और गुणवती पुत्री को हर किसी के गले मढ़ देना उन्होंने उचित न समझा। उन्होंने विचार किया कि इसका विवाह इसकी इच्छानुसार किसी योग्य वर से ही करूँगा। निदान, एक दिन उन्होंने उसे एकान्त में बुलाकर पूछा-“हे पुत्री ! तुम्हें किस के साथ ब्याह करना पंसन्द है?"
प्रीतिमती ने संकुचाते हुए सिर झुकाकर कहा-“हे पिताजी! मैं उसी से ब्याह करना पसन्द करती हूँ, जो कला-कौशल में मुझ से अधिक निपुण हो। यदि कोई पुरुष इस विषय में मुझे जीत लेगा तो मैं सदा के लिए उसकी दासी बन जाऊँगी।"
राजा ने कहा-“अच्छा, ऐसा ही होगा।"
धीरे-धीरे प्रतिमती की इस प्रतिज्ञा का समाचार चारों ओर फैल गया। वह रूप और गुण में देवकन्याओं को भी मात करती थी, इसलिए दूर-दूर के राजकुमार उसका पाणिग्रहण करने के लिए लालायित हो रहे थे। उसकी इस प्रतिज्ञा का समाचार पाकर वे सब जोरों से कला कौशल का. अभ्यास करने लगे, जिससे इस कठिन परीक्षा में उन्हीं की विजय हो।