________________
श्री नेमिनाथ - चरित
35 कर चुकी थी। राजा पर भी उसने अपनी यह औषधि आजमाई, परन्तु राजा का जख्म ऐसा भीषण था, कि उस औषधि ने भी कोई काम न किया । उत्तरोत्तर " राजा की अवस्था बिगड़ते देखकर कामलता ने प्रधानमन्त्री से कहा - "हे मन्त्रीराज! इस नगर में साक्षात् देव समान एक परदेशी आदमी आया हुआ है। वह अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी प्रकार का व्यवसाय या उद्योग नहीं करता, फिर भी उसके दिन बड़े आनन्द से कट रहे हैं। इसलिए वह बहुत ही प्रभावशाली मालूम होता है। मैं समझती हूँ कि उसके पास कोई औषधि या यन्त्र-मन्त्र अवश्य होगा । आप उसके पास जाइए शायद वह महाराज को आराम कर दे !"
कामलता के यह वचन सुनकर मन्त्रीजी उसी समय अपराजित के पास पहुँचे और अनेक प्रकार से विनय अनुनय कर उन्हें महाराज के पास ले आये। अपराजित ने राजा को देखा। उनकी अवस्था अभी आशाजनक थी । इसलिए अपराजित ने मौका देखकर उस मणि के जल में जड़ी को घिसकर ज्योंही राजा के जख्म पर लगाया, त्योंही वे स्वस्थ होकर इस तरह उठ बैठे, मानो निद्रा से उठ रहे हों। भली-भांति स्वस्थ होने पर राजा ने अपराजित का परिचय पूछा। मन्त्री- पुत्र ने तुरन्त राजा को सब हाल कह सुनाया । उसे सुनकर सुप्रभ राजा 'प्रसन्न हो उठे। उन्होंने अपराजित को गले लगाकर कहा - "अहो ! आप तो मेरे मित्र राजा हरिनन्दी के पुत्र हैं। मुझे खेद है कि आप इतने दिनों से मेरे नगर में : हैं, फिर भी मैं आपका पता न पा सका। आप को साधारण प्रजाजन की भाँति नगर में न रह कर मेरे महल में आकर रहना चाहिए था ।
• इसके बाद सुप्रभ राजा ने अपराजित और उनके मित्र को कई दिन तक • अपने यहाँ रखकर उनका आतिथ्य सत्कार किया। उनके रम्भा नामक एक परम रूपवती कन्या थी। उन्होंने अपराजित के साथ उसका विवाह भी कर दिया। कुछ दिन अपनी इस पत्नी के साथ मौजकर अपराजित यहाँ से भी विदा हो आगे के लिए चल पड़े।
श्रीमन्दिर छोड़ने के कई दिन बाद राजकुमार अपराजित और मन्त्री- पुत्र कुण्डपुर नामक एक नगर में जा पहुँचे। यहाँ एक उद्यान में उन्हें केवली भगवान के दर्शन हुए। उन्हें वन्दन कर उनका धर्मोपदेश सुनने के बाद राजकुमार ने