________________
श्री नेमिनाथ-चरित * 421 से कृष्ण बलराम को पहचान गये। उन्होंने हर्षपूर्वक उठकर अपने ज्येष्ठ बन्धु को प्रणाम किया। इसके बाद बलराम ने कृष्ण से कहा- "हे भ्रात! श्रीनेमिप्रभु ने विषयजन्य सुख को परिणाम में दु:खरूप बतलाया था। उनका वह कथन इस समय तुम्हें प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। तुम कर्म बन्धनों से जकड़े हुए हो, इसलिए मैं तुम्हें देवलोक ले जाने में असमर्थ हूँ, किन्तु हे कृष्ण! तुम्हारे ऊपर मेरा आन्तरीक प्रेम है। तुम कहो तो तुम्हारे पास रहने के लिए मैं सहर्ष तैयार
कृष्ण ने कहा- “हे भाई! तुम्हारे यहां रहने से भी क्या हो सकता है ? तुम्हारे रहने पर यह पूर्वोपार्जित नरकायु तो मुझे ही भोगनी पड़ेगी। मैं अपनी इस अवस्था के लिए अवश्य ही कुछ दुःखित हूँ, किन्तु सबसे अधिक दुःख तो मुझे इस बात के लिए है, कि मेरी इस अवस्था से मेरे शत्रुओं को आनन्द
और मेरे मित्रों को खेद हो रहा होगा। यदि आप वास्तव में मेरा दुःखभार हल्का करना चाहते हैं तो आप भरतक्षेत्र में जाइए और वहां विमान में बैठकर मेरा दिव्य रूप लोगों को दिखाइए। साथ ही आप भी अपना रूप सर्वत्र दिखाइए, जिससे लोगों के मन से तिरस्कार का भाव दूर हो जाय और वे समझने लगे कि कृष्ण और बलराम महाबलवान, और परमप्रतापी है। यदि आप ऐसा कर सकेंगे, तो मुझे अत्यन्त आनन्द और परमं सन्तोष होगा।" . . कृष्ण का यह अनुरोध स्वीकारकर बलराम भरत क्षेत्र में आये और वहां स्थान स्थान पर उन्होंने उसी तरह दो रूप बनाकर लोगों को दिखाये। उन्होंने सबसे कहा कि तुम लोग हमारी सुन्दर प्रतिमाएं बनाकर, सर्वोत्कृष्ट देवबुद्धि से उनका स्वीकार और पूजन करो, क्योंकि हम ही सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाले हैं। हम लोग देवलोक से यहां आये थे और अब स्वेच्छा से देवलोक को जा रहे हैं। द्वारिकापुरी का निर्माण हमने ही किया था और जाने की इच्छा करने पर हम ही ने उसका संहार किया है। हमारे सिवाय और कोई ‘कर्ता या हर्ता नहीं है। सबको स्वर्ग देने वाले भी हम ही हैं।" .. बलराम के ये वचन सुनकर सब लोग स्थान स्थान में कृष्ण तथा
बलराम की प्रतिमाएं स्थापित कर उनका पूजन करने लगे। जिन लोगों ने ऐसा किया, उनकी उस देव (बलराम) ने बहुत उन्नति की। इससे कृष्ण और