SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 420 * बलराम की दीक्षा और नेमिप्रभु का मोक्ष मुनिराज को प्रणाम कर आहार वहोरने की प्रार्थना करने लगा। प्रार्थना सुनकर बलराम अपने मन में कहने लगे-“यह कोई शुद्धमति श्रावक है, इसलिए स्वर्ग फल रूप कर्म उपार्जन करने की इच्छा से मुझे भिक्षा देने को तैयार हुआ है। यदि मैं यह भिक्षा न ग्रहण करूंगा, तो इसकी सद्गति में अन्तराय रूप बनूंगा। इसलिए इसकी प्रार्थना स्वीकारकर लेना ही उचित है।" इस प्रकार सोचकर बलराम ने उसके दिये हुए अन्नपानादिक ग्रहण कर लिए। वह हरिण इस समय भी बलराम के पास ही खड़ा था। उसके दोनों नेत्रों . से अश्रुधारा बह रही थी। रथकार पर मुनिराज का अनुग्रह, देखकर वह अपने मन में कहने लगा-"अहो ! धन्य है, इस रथकार को, जिस पर मुनिराज ने इतना अनुग्रह किया है। मुनिराज को अन्नपानादिक वहोराने से इस रथकार का जीवन आज सफल हो गया किन्तु मैं कैसा अभागा हूँ, कि न तो तप ही कर : सकता हूँ, न मुनिराज को आहार ही वहोरा सकता हूँ। धिक्कार है मेरे इस • तिर्यश्च जन्म को, जिसके कारण मैं इस प्रकार असमर्थ हो रहा हूँ।" ___ इस तरह जिस समय वह हरिण, मुनिराज और रथकार धर्मध्यान में लीन हो रहे थे, उसी समय महावायु के कारण अधकटा वृक्ष उन तीनों पर गिर पड़ा, जिससे तत्काल उनकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु के बाद वे ब्रह्मदेवलोक में पद्मोत्तर नामक विमान में देवता हुए। बलराम ने सब मिलाकर साठ मास क्षमण, साठ पक्ष क्षमण, और चातुर्मासिक तप किये थे। उन्होंने बारह सौ वर्ष की आयु भोगी थी, जिसमें से सौ वर्ष तक व्रत का पालन किया था। मृत्यु के बाद पांचवें देवलोक में जाने पर बलराम ने अवधिज्ञान से तीसरे नरक में अपने बन्धु को देखा। अपने प्रिय बन्धु को देखते ही उनसे मिलने के लिए वे व्याकुल हो उठे और वैकिय शरीर धारण कर वे उनके पास गये। उन्होंने कृष्ण को आलिङ्गन कर कहा—“हे कृष्ण ! मैं तुम्हारा बड़ा भाई बलराम हूँ और तुम्हारी रक्षा करने के लिए, तुम जो कहो सो करने को मैं तैयार हूँ।" ___ इतना कह बलराम ने कृष्ण को हाथ से उठाया, परन्तु वे पारे की तरह हाथ से बिखरकर भूमि पर गिर पड़े और पुन: मिलकर पूर्ववत् हो गये। प्रथम आलिङ्गन करने, फिर पूर्वजन्म का परिचय देने और अन्त में हाथ द्वारा उठाने
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy